आतंकवाद की खुराक है हमारा डर
दहशतगर्द न तो आतंकवाद की शुरुआत करते हैं, और न
ही उसका अंत। आतंकवाद जब अपना आधार बनाता है, तो उस आधार को अधिक प्रभावी बनाने के लिए उसे हमारी
यानी आतंकवाद के शिकार बनने वालों की जरूरत होती है। हम तीन तरीकों से उसके
मनसूबों में अपना सहयोग देते हैं।
सबसे पहले तो हम भयभीत होते हैं (यह एक स्वाभाविक प्रतिक्रिया है, जिससे बचना बहुत मुश्किल है)। फिर इस डर को हम दूसरों तक पहुंचाते हैं। इस क्रम में हम अपने प्रति भी थोड़े अमानवीय हो जाते हैं। यह तरीका कभी-कभी अतिरंजित भी हो जाता है, जबकि यदि हम चाहें, तो इसे नकार सकते हैं। और तीसरा, हम उस पूरे ताने-बाने को ही चोट पहुंचाते हैं, जिनसे हमारा समाज आपस में गहराई से जुड़ा हुआ है।
सबसे पहले तो हम भयभीत होते हैं (यह एक स्वाभाविक प्रतिक्रिया है, जिससे बचना बहुत मुश्किल है)। फिर इस डर को हम दूसरों तक पहुंचाते हैं। इस क्रम में हम अपने प्रति भी थोड़े अमानवीय हो जाते हैं। यह तरीका कभी-कभी अतिरंजित भी हो जाता है, जबकि यदि हम चाहें, तो इसे नकार सकते हैं। और तीसरा, हम उस पूरे ताने-बाने को ही चोट पहुंचाते हैं, जिनसे हमारा समाज आपस में गहराई से जुड़ा हुआ है।