शिक्षा के तंत्र में उम्मीदें अब भी जीवित हैं
मैं यहां पांच कहानियां बता
रहा हूं। ये कहानियां मैंने साल 2015 में देश के अलग-अलग हिस्सों से बटोरी हैं। गरम मैदानी इलाके में एक
शिक्षक अपने छात्र के घर जाता है, उसे गोदी में उठाकर
अपनी बाइक पर बिठाता है, और फिर दोनों साथ-साथ स्कूल आते
हैं।
जब छुट्टी होती है, तो फिर दोनों साथ-साथ वापस घर लौटते हैं। वह छात्र अशक्त है। वह बच्चा शेष बच्चों से अलग नहीं है- यह बात हर कोई महसूस करता है, मगर आकर्षण के केंद्र में वह शिक्षक है।
ऊंची पहाडि़यों पर वह सप्ताह के किसी एक दिन यह देखने के लिए हर छोटी बस्ती में जाती हैं कि सभी बच्चे स्कूल में तो हैं। इस तरह वह आशा और खुशी नामक दो बालिकाओं के करीब आईं। उनका परिवार खानाबदोश था, हर दिन मजदूरी की तलाश में घूमने वाला। उन्होंने दोनों बच्चियों को अपने स्कूल में दाखिले के लिए तैयार कर लिया। मगर एक दिन वे चले गए। यह तय है कि बेहतर मजदूरी की तलाश में उन्होंने उस जगह को छोड़ा होगा।
राज्य के सबसे वरिष्ठ स्कूल शिक्षा अधिकारी का यहां स्थानांतरण हुआ, तो दो महीने के बाद ही उनके तबादले की अफवाह उड़ने लगी। मगर उनके पास प्राथमिकता के अनुसार काम करने की पूरी सूची थी। उन्होंने तमाम संसाधनों का इस्तेमाल किया- वित्त विभाग से मिलने वाली रकम, अपने विभाग के अच्छे लोग और बाहरी मदद।
संभावित स्थानांतरण की सूचना और अपनी आलोचना के बावजूद वह अनवरत काम करते रहे। सुखद बात यह है कि अब तक उनका तबादला नहीं हुआ है। बड़ी-बड़ी व चमकीली आंखों वाली वह महिला रोजाना झाड़ू लगाती हैं। वह स्कूल इतना साफ है कि आप फर्श पर भी खा सकते हैं।
यह उनका काम नहीं है। उनका काम मिड डे मील बनाना है। तो वह ऐसा क्यों कर रही हैं? जवाब है- अगर सरकार सभी बच्चों को मुफ्त शिक्षा दे रही है, शिक्षक जी-तोड़ मेहनत करते हैं, तो क्या मुझे स्कूल के लिए कुछ नहीं करना चाहिए?
वह सबसे पहले आते हैं और सबसे आखिरी में बोलते हैं, फिर सारी समस्याएं मानो खत्म हो जाती हैं। वह हेड टीचर हैं और सुबह होते ही स्कूल पहुंच जाते हैं। वह वहां दो शिक्षकों के साथ न सिर्फ पढ़ाते हैं, बल्कि स्कूल के बाकी काम भी करते हैं। स्कूल बंद होने से एक घंटे पहले वह अपनी साइकिल से दस किलोमीटर दूर दूसरे स्कूल में जाते हैं। वह उसे भी देर शाम तक चलाते हैं। जब तक कोई दूसरा शिक्षक वहां के लिए नियुक्त नहीं हो जाता, वह ऐसा करते रहेंगे।
ये कहानियां हमारी सरकारी स्कूली व्यवस्था की हैं। देश भर में अच्छे लोग बेहतरीन काम कर रहे हैं। अब जब हम नए साल में प्रवेश कर रहे हैं, तो मेरा भरोसा अब भी कायम है। बस गुजारिश यही है कि जब भी शिक्षा में सुधार की कोई नीति सफल हो, तो इन अच्छे लोगों को भी बराबर का श्रेय मिले।
अनुराग बेहर, सीईओ, अजीम प्रेमजी फाउंडेशन
जब छुट्टी होती है, तो फिर दोनों साथ-साथ वापस घर लौटते हैं। वह छात्र अशक्त है। वह बच्चा शेष बच्चों से अलग नहीं है- यह बात हर कोई महसूस करता है, मगर आकर्षण के केंद्र में वह शिक्षक है।
ऊंची पहाडि़यों पर वह सप्ताह के किसी एक दिन यह देखने के लिए हर छोटी बस्ती में जाती हैं कि सभी बच्चे स्कूल में तो हैं। इस तरह वह आशा और खुशी नामक दो बालिकाओं के करीब आईं। उनका परिवार खानाबदोश था, हर दिन मजदूरी की तलाश में घूमने वाला। उन्होंने दोनों बच्चियों को अपने स्कूल में दाखिले के लिए तैयार कर लिया। मगर एक दिन वे चले गए। यह तय है कि बेहतर मजदूरी की तलाश में उन्होंने उस जगह को छोड़ा होगा।
राज्य के सबसे वरिष्ठ स्कूल शिक्षा अधिकारी का यहां स्थानांतरण हुआ, तो दो महीने के बाद ही उनके तबादले की अफवाह उड़ने लगी। मगर उनके पास प्राथमिकता के अनुसार काम करने की पूरी सूची थी। उन्होंने तमाम संसाधनों का इस्तेमाल किया- वित्त विभाग से मिलने वाली रकम, अपने विभाग के अच्छे लोग और बाहरी मदद।
संभावित स्थानांतरण की सूचना और अपनी आलोचना के बावजूद वह अनवरत काम करते रहे। सुखद बात यह है कि अब तक उनका तबादला नहीं हुआ है। बड़ी-बड़ी व चमकीली आंखों वाली वह महिला रोजाना झाड़ू लगाती हैं। वह स्कूल इतना साफ है कि आप फर्श पर भी खा सकते हैं।
यह उनका काम नहीं है। उनका काम मिड डे मील बनाना है। तो वह ऐसा क्यों कर रही हैं? जवाब है- अगर सरकार सभी बच्चों को मुफ्त शिक्षा दे रही है, शिक्षक जी-तोड़ मेहनत करते हैं, तो क्या मुझे स्कूल के लिए कुछ नहीं करना चाहिए?
वह सबसे पहले आते हैं और सबसे आखिरी में बोलते हैं, फिर सारी समस्याएं मानो खत्म हो जाती हैं। वह हेड टीचर हैं और सुबह होते ही स्कूल पहुंच जाते हैं। वह वहां दो शिक्षकों के साथ न सिर्फ पढ़ाते हैं, बल्कि स्कूल के बाकी काम भी करते हैं। स्कूल बंद होने से एक घंटे पहले वह अपनी साइकिल से दस किलोमीटर दूर दूसरे स्कूल में जाते हैं। वह उसे भी देर शाम तक चलाते हैं। जब तक कोई दूसरा शिक्षक वहां के लिए नियुक्त नहीं हो जाता, वह ऐसा करते रहेंगे।
ये कहानियां हमारी सरकारी स्कूली व्यवस्था की हैं। देश भर में अच्छे लोग बेहतरीन काम कर रहे हैं। अब जब हम नए साल में प्रवेश कर रहे हैं, तो मेरा भरोसा अब भी कायम है। बस गुजारिश यही है कि जब भी शिक्षा में सुधार की कोई नीति सफल हो, तो इन अच्छे लोगों को भी बराबर का श्रेय मिले।
अनुराग बेहर, सीईओ, अजीम प्रेमजी फाउंडेशन
साभार
हिदुस्तान