गुरु तेग बहादुर
गुरू तेग़ बहादुर सिखों के नवें गुरू थे। विश्व इतिहास में धर्म एवं मानवीय मूल्यों, आदर्शों एवं
सिद्धांत की रक्षा के लिए प्राणों की आहुति देने वालों में गुरु तेग बहादुर साहब
का स्थान अद्वितीय है।
"धरम हेत साका जिनि कीआ
सीस दीआ पर सिरड न दीआ।"
सीस दीआ पर सिरड न दीआ।"
इस महावाक्य अनुसार गुरुजी का बलिदान न केवल धर्म पालन के
लिए नहीं अपितु समस्त मानवीय सांस्कृतिक विरासत की खातिर बलिदान था। धर्म उनके लिए
सांस्कृतिक मूल्यों और जीवन विधान का नाम था। इसलिए धर्म के सत्य शाश्वत मूल्यों
के लिए उनका बलि चढ़ जाना वस्तुतः सांस्कृतिक विरासत और इच्छित जीवन विधान के पक्ष
में एक परम साहसिक अभियान था।
आततायी शासक की धर्म विरोधी और
वैचारिक स्वतंत्रता का दमन करने वाली नीतियों के विरुद्ध गुरु तेग बहादुरजी का
बलिदान एक अभूतपूर्व ऐतिहासिक घटना थी। यह गुरुजी के निर्भय आचरण, धार्मिक अडिगता और नैतिक उदारता
का उच्चतम उदाहरण था। गुरुजी मानवीय धर्म एवं वैचारिक स्वतंत्रता के लिए अपनी महान
शहादत देने वाले एक क्रांतिकारी युग पुरुष थे।