शिक्षक की वाणी
चौधरी चरण सिंह
विश्वविद्यालय, मेरठ ने यह फैसला किया है कि जो छात्र हकलाते हैं, उन्हें बीएड के पाठ्यक्रम में दाखिला नहीं दिया जाएगा। इसके पीछे तर्क
यही है कि हकलाने वाले शिक्षक कक्षा में पढ़ाने के काबिल नहीं हैं। विश्वविद्यालय
का कहना है कि बीएड और एमएड व्यावसायिक पाठ्यक्रम हैं और इनमें भर्ती होने वाले
छात्र पढ़ाने को अपना करियर बनाने के लिए आते हैं, इसलिए
कुछ पाबंदियां जरूरी हैं। विश्वविद्यालय ने संक्रामक त्वचा रोगों के शिकार छात्रों
को भी दाखिला न देने का फैसला किया है। यह भी कहा गया है कि ऐसे नियम पहले से ही
थे, लेकिन कई निजी कॉलेज इनका उल्लंघन करके दाखिला दे
देते हैं। इसलिए फिर से इन नियमों को प्रचारित किया गया है।
इसमें कोई शक नहीं कि अलग-अलग पेशों में अलग-अलग शारीरिक क्षमताओं की जरूरत होती है। इसलिए भर्ती के समय उन्हें लागू करना होता है। मसलन सेना या सुरक्षा बलों की अपनी जरूरतें होती हैं, व्यावसायिक वाहन, ट्रेन या हवाई जहाज चलाने के लिए कई तरह की अक्षमताओं की वजह से लोगों को खारिज किया जाता है। चिकित्सा व्यवसाय में भी दाखिले के समय रंगांधता की जांच की जाती है, जो डॉक्टर ऑपरेशन के वक्त खून का लाल रंग न देख पाए, वह मरीज के लिए खतरा हो सकता है। इसी तरह शिक्षक से यह अपेक्षा की जाती है कि उसकी वाणी साफ और उच्चारण शुद्ध होना चाहिए। वैसे भी कक्षा में बैठे हुए छात्र बहुत अनुशासित ही होते हों, ऐसा नहीं है।
बच्चों और किशोरों में जबर्दस्त ऊर्जा होती है और यह ऊर्जा किसी बहाने फूट पड़ना चाहती है। ऐसे में वह ऊर्जा कक्षा में अराजकता न पैदा करे, इसलिए शिक्षक का प्रभावशाली होना जरूरी है, और शिक्षक के प्रभावशाली होने में उसकी वाणी का बहुत बड़ा योगदान होता है। लेकिन वाणी शिक्षक के काम का एक ही हिस्सा है। शिक्षक का मुख्य काम बच्चों को ज्ञान देना है और इसके लिए कई और गुण ज्यादा महत्वपूर्ण हैं। शिक्षक को अपने विषय में दिलचस्पी होनी चाहिए, उसे पढ़ाने में भी दिलचस्पी होना जरूरी है और उसे पढ़ाने की प्रक्रिया को दिलचस्प और जीवंत बनाना आना चाहिए, जिसमें सिर्फ शिक्षक का एकतरफा भाषण न हो, बल्कि बच्चों का भी सहभाग हो।
अगर शिक्षक में ये सारे गुण हों, लेकिन सिर्फ वह हकलाता हो, तो उसे क्यों शिक्षक बनने से वंचित रखा जाए? हकलाना एक ऐसा दोष है, जिसे ठीक किया जा सकता है। क्यों न बीएड के पाठ्यक्रम में वक्तृता और उच्चारण को बेहतर बनाने, अपनी बात प्रभावशाली ढंग से रखने को गंभीरता से शामिल किया जाए, जिसमें हकलाने वाले छात्र भी अपनी कमजोरी से निजात पा सकें? अगर कोई अपने विषय को अच्छी तरह पढ़ाने के काबिल है, तो उसके कौशल का फायदा छात्रों को मिलना चाहिए। हम कई ऐसे शिक्षक भी देखते हैं, जो शिक्षक बनने के काबिल नहीं हैं; भले ही उनकी वाणी धाराप्रवाह हो।
हमारे यहां पाठ्यक्रमों में दाखिला किसी परीक्षा में अंकों और कुछ शारीरिक मानकों के आधार पर हो जाता है। उस विषय या पेशे के प्रति उस उम्मीदवार का रुझान या उसके लिए उसकी मानसिक क्षमता को नहीं देखा जाता। इससे हर व्यवसाय एक नौकरी बन जाता है। जरूरी नहीं कि किसी एक परीक्षा में कुछ निश्चित अंक पाने वाला व्यक्ति डॉक्टर बनने के काबिल ही हो या बीएड करने वाला हर व्यक्ति शिक्षक बनने के लायक हो। आदर्श स्थिति यह है कि किसी पेशे में वे लोग ही भर्ती हों, जिन्हें उस कार्य से लगाव हो। जो अच्छा शिक्षक बन सकता हो, क्यों न उसकी एकाध शारीरिक कमजोरी को सुधारने की कोशिश की जाए।
इसमें कोई शक नहीं कि अलग-अलग पेशों में अलग-अलग शारीरिक क्षमताओं की जरूरत होती है। इसलिए भर्ती के समय उन्हें लागू करना होता है। मसलन सेना या सुरक्षा बलों की अपनी जरूरतें होती हैं, व्यावसायिक वाहन, ट्रेन या हवाई जहाज चलाने के लिए कई तरह की अक्षमताओं की वजह से लोगों को खारिज किया जाता है। चिकित्सा व्यवसाय में भी दाखिले के समय रंगांधता की जांच की जाती है, जो डॉक्टर ऑपरेशन के वक्त खून का लाल रंग न देख पाए, वह मरीज के लिए खतरा हो सकता है। इसी तरह शिक्षक से यह अपेक्षा की जाती है कि उसकी वाणी साफ और उच्चारण शुद्ध होना चाहिए। वैसे भी कक्षा में बैठे हुए छात्र बहुत अनुशासित ही होते हों, ऐसा नहीं है।
बच्चों और किशोरों में जबर्दस्त ऊर्जा होती है और यह ऊर्जा किसी बहाने फूट पड़ना चाहती है। ऐसे में वह ऊर्जा कक्षा में अराजकता न पैदा करे, इसलिए शिक्षक का प्रभावशाली होना जरूरी है, और शिक्षक के प्रभावशाली होने में उसकी वाणी का बहुत बड़ा योगदान होता है। लेकिन वाणी शिक्षक के काम का एक ही हिस्सा है। शिक्षक का मुख्य काम बच्चों को ज्ञान देना है और इसके लिए कई और गुण ज्यादा महत्वपूर्ण हैं। शिक्षक को अपने विषय में दिलचस्पी होनी चाहिए, उसे पढ़ाने में भी दिलचस्पी होना जरूरी है और उसे पढ़ाने की प्रक्रिया को दिलचस्प और जीवंत बनाना आना चाहिए, जिसमें सिर्फ शिक्षक का एकतरफा भाषण न हो, बल्कि बच्चों का भी सहभाग हो।
अगर शिक्षक में ये सारे गुण हों, लेकिन सिर्फ वह हकलाता हो, तो उसे क्यों शिक्षक बनने से वंचित रखा जाए? हकलाना एक ऐसा दोष है, जिसे ठीक किया जा सकता है। क्यों न बीएड के पाठ्यक्रम में वक्तृता और उच्चारण को बेहतर बनाने, अपनी बात प्रभावशाली ढंग से रखने को गंभीरता से शामिल किया जाए, जिसमें हकलाने वाले छात्र भी अपनी कमजोरी से निजात पा सकें? अगर कोई अपने विषय को अच्छी तरह पढ़ाने के काबिल है, तो उसके कौशल का फायदा छात्रों को मिलना चाहिए। हम कई ऐसे शिक्षक भी देखते हैं, जो शिक्षक बनने के काबिल नहीं हैं; भले ही उनकी वाणी धाराप्रवाह हो।
हमारे यहां पाठ्यक्रमों में दाखिला किसी परीक्षा में अंकों और कुछ शारीरिक मानकों के आधार पर हो जाता है। उस विषय या पेशे के प्रति उस उम्मीदवार का रुझान या उसके लिए उसकी मानसिक क्षमता को नहीं देखा जाता। इससे हर व्यवसाय एक नौकरी बन जाता है। जरूरी नहीं कि किसी एक परीक्षा में कुछ निश्चित अंक पाने वाला व्यक्ति डॉक्टर बनने के काबिल ही हो या बीएड करने वाला हर व्यक्ति शिक्षक बनने के लायक हो। आदर्श स्थिति यह है कि किसी पेशे में वे लोग ही भर्ती हों, जिन्हें उस कार्य से लगाव हो। जो अच्छा शिक्षक बन सकता हो, क्यों न उसकी एकाध शारीरिक कमजोरी को सुधारने की कोशिश की जाए।
साभार हिदुस्तान