Monday, May 12, 2014

बच्चे को खुद लेने दें अपने निर्णय


 हाथ में कोका कोला या पेप्सी पकड़े, मेज पर पिज्जा या बर्गर रखकर सामने टीवी पर कार्टून या कोई फिल्म देखते हमारे बच्चे-आज के आधुनिक युग के बच्चों की ये तस्वीर अमूमन घरों में देखने को मिल रही है। आज की इस तेज जिंदगी में माता-पिता अपना कैरियर बनाने में और पैसा कमाने की धुन में लगे है और बच्चे उन कमाए पैसों को उड़ाने में। इस आपाधापी में पेरेट्स भी इस बात पर ध्यान नहीं दे पा रहे है कि उनके बच्चे केवल पैसा खर्च करना ही सीख रहे है या उनमें अपने बारे में सोचने समझने और अपने फैसले करने की क्षमता का भी विकास हो रहा है। औरों के निर्णय से तय जिंदगी
विदेशों में बच्चे कच्ची उम्र में ही आत्मनिर्भर बन जाते है। पांच-छह साल की उम्र से वे मां-बाप से दूर अलग बेडरूम में सोते है और पंद्रह सोलह की उम्र तक पहुंचते-पहुंचते तो वे कई बार मां-बाप को छोड़कर अलग घर में रहने लगते हैं। इसी उम्र से वे अपने निर्णय खुद लेने लगते है। परंतु भारतीय परिवेश में ऐसा नहीं होता। चूंकि हमारे यहां परिवार की परंपरा को महत्व दिया जाता है इसीलिए बच्चे इस परिधि से बाहर नहीं जाते है। चूंकि परिवार में मां-बाप, दादा-दादी, नाना-नानी, चाचा-ताऊ सबका दबदबा रहता है इसीलिए बच्चे के बारे में लिए जाने वाले निर्णयों में इन सबकी शिरकत रहती है। हमारे यहां आमतौर पर परिवारों में बच्चे के बारे में अधिकांश निर्णय बड़े ही लेते है। पश्चिम की तरह हम अपने बच्चों को वह स्वतंत्रता देते ही नहीं जिसमें वे अपने बारे में छोटा सा निर्णय भी कर सकें। नतीजा यह होता है कि वयस्क हो जाने पर भी बच्चे में इतना आत्मविश्वास नहीं आ पाता कि वह अपने बारे में कोई निर्णय ले सके।
अखिल भारतीय आयुर्विज्ञान संस्थान में काम कर चुकी और अब अपना निजी क्लीनिक चला रही बालरोग विशेषज्ञा डा. विनीता डी मोंटी का कहना है कि 8 से 9 वर्ष की उम्र के बाद हमें बच्चों को यह आजादी देनी चाहिए कि वे अपने बारे में छोटे-छोटे निर्णय ले सकें। मसलन उन्हे खेलने जाना है, क्या पहनना है, कितनी देर पढ़ाई करनी है या कितनी देर टीवी देखना है। 'यानी इस उम्र से ही उन पर कुछ रिस्पांसिब्लिटी डालनी चाहिए क्योंकि एक बार टीनएज में पहुंचने के बाद तो वे वैसे भी मनमानी करते है।'
जरूरी है बच्चों पर भरोसा
मनोवैज्ञानिकों की राय में भी बड़ों को एक उम्र के बाद बच्चों पर विश्वास करना चाहिए। कुछ बातों का निर्णय उन पर छोड़ देना चाहिए। 8-9 साल की उम्र वह होती है जब बच्चा खुद भी अपने बारे में जानने लगता है। वह अपनी दिशा तय करना चाहता है कि उसे क्या पसंद है-उसे क्या सीखना है। हो सकता है कि इस प्रक्रिया में कई बार वह गलत निर्णय भी ले। पर मनोवैज्ञानिक कहते है कि इस दौर में मां-बाप को बच्चों पर अपनी पसंद थोपनी नहीं चाहिए। बल्कि उसे निर्णय लेने में मदद करनी चाहिए। ऐसे में उनका आत्मविश्वास बढ़ेगा। डा. मोंटी का मानना है चूंकि नौकरीपेशा मां-बाप बहुत से निर्णय अपने बच्चों पर छोड़ देते है- स्कूल से लौटने के बाद उन्हे घर में क्या पहनना है, कितनी देर खेलना है, कब टीवी देखना है इसीलिए उनके बच्चे और के मुकाबले ज्यादा आत्मनिर्भर और आत्मविश्वासी होते है।
किंतु इस बारे में डा. विनीता मोंटी का यह भी कहना है कि नौकरीपेशा माता-पिता को अन्य अभिभावकों की तुलना में अपने बच्चों को थोड़ा ज्यादा समय देना पड़ता है ताकि वे ये जान पाएं कि उनके आत्मनिर्भर बच्चे किस हद तक अपना निर्णय ले पाने में सक्षम है। उनके इन स्वतंत्र निर्णयों का कहीं उन पर प्रतिकूल प्रभाव तो नहीं पड़ रहा है।
चुनाव की स्वतंत्रता
मनोवैज्ञानिकों का यह भी मानना है कि बच्चों को आत्मनिर्भर बनाने का एक तरीका है कि उनकी बात को भी ध्यान से सुना जाए। आमतौर पर परिवारों में देखा गया है कि बच्चों पर बड़े केवल अपना निर्णय लादते है- वे ये जानने की कोशिश ही नहीं करते कि उनका बच्चा इस निर्णय को स्वीकारेगा या नहीं। अमूमन यह बात कैरियर को लेकर होती है। बच्चे को आगे क्या करना है इसका निर्णय अभिभावक करते है। जबकि डा. मोंटी मानती है कि बारहवीं के बाद बच्चे इतने मैच्योर होते है कि वे अपना कैरियर खुद चुन सकते है। हां, उन्हे सिर्फ चाहिए होता है गाइडेस और इमोशनल सपोर्ट। अभिभावकों को चाहिए कि वे अपने बच्चों को ये बताएं कि किस कोर्स में आगे क्या संभावनाएं है, कौन या कोर्स जॉब ओरिएंटेड है, किसे करना फायदेमंद होगा, लेकिन निर्णय का अधिकार बच्चे को दें। जब वह अपनी पसंद की पढ़ाई करेगा तो बेहतर नतीजा मिलेगा।
विंिवध क्षमताओं का विकास
हर बच्चे में बहुत सी क्षमताएं होती है और ये क्षमताएं सबसे पहले पेरेट्स को ही नजर आती है, यह अलग बात है कि अधिकतर माता-पिता अपनी व्यस्तता और पूर्वाग्रहों के चलते इन को नजरअंदाज कर देते है। अगर आपका बच्चा ड्राइंग में रुचि दिखाता है या वह एथलीट बनना चाहता है तो उसे हतोत्साहित न करे। बहुत संभव है कि वह भविष्य में एक अच्छा चित्रकार या एथलीट बने और अगर ऐसा नहीं भी होता है तब भी उसका अपने आप पर भरोसा बढ़ेगा और वह जीवन के और क्षेत्रों में भी अच्छा कर पाएगा।
कल्पनाशीलता के लिए प्रयास
आधुनिक युग की देन वीडियो गेम्स और कम्प्यूटर दोनों हमारे बच्चों की कल्पनाशीलता को कुंद कर रहे है। मनोवैज्ञानिक और डॉक्टर्स की एकमत राय है कि इन इनडोर गतिविधियों के कारण एक तो बच्चे असामाजिक हो रहे है दूसरे उनमें कल्पनाशीलता कम हो रही है चूंकि ये उपकरण मशीनी है। बच्चों को इनसे खेलने देने की बजाय उन्हे खाली समय में अपनी कल्पनाशीलता से खुद कुछ खेलों को ईजाद करने के लिए प्रेरित करे। जब बच्चा देखेगा कि उसके अभिभावक उसके बोर हो जाने की समस्या का हल ढूंढना चाहते है तो वह भी अपनी तरफ से प्रयास करेगा। बस उसे वीडियो/कंप्यूटर से दूर रखना होगा ताकि वह मानसिक/शारीरिक रूप से सक्रिय रह सके।
बड़े बनें आदर्श
डॉक्टर्स का कहना है कि बच्चों पर इस बात का भी प्रभाव पड़ता है कि घर के बड़े अपने अपने निर्णय लेने में कितने सक्षम है? अगर बच्चा पाता है कि उसकी मां हर काम पिता से पूछकर करती है तो उसमें भी अपना निर्णय लेने का आत्मविश्वास नहीं आएगा। अगर आप चाहते है कि आपके बच्चे आत्मविश्वासी और आत्मनिर्भर बनें तो यह जरूरी है कि इस तरह का उदाहरण पहले अभिभावक घर में प्रस्तुत करे।

साभार जागरण सखी


prathamik shikshak

pathak diary