Sunday, May 4, 2014

शिक्षक संस्कृति, संस्कार और चरित्र का दर्पण है। वह ऐसा प्रकाश है, जिसमें समग्र राष्ट्र अपना प्रतिबिंब देखता है। छात्र अपना आदर्श देखता है। इसलिए शिक्षक समाज के तेजोदीप्त व्यक्तित्व का नाम है। शिक्षक एक सिद्धहस्त कलाकार होता है। वह छात्र के व्यक्तित्व का निर्माण करता है, अनगढ़ प्रस्तर खंड को तराशकर छात्र के सौम्य व्यक्तित्व की मूर्ति गढ़ता है। यही वजह है कि शिक्षक को समाज का सबसे विश्वसनीय व्यक्ति माना जाता है। जिस प्रकार एक चित्रकार अपनी तूलिका से रंगों के सहारे सुंदर चित्र बनाता है, एक मूर्तिकार छेनी और हथौड़ी के सहारे अनगढ़ प्रस्तरखंड से सुंदर मूर्ति बनाता है, ठीक उसी प्रकार एक सफल शिक्षक बच्चों के व्यक्तित्व का निर्माण करता है। चित्रकार और मूर्तिकार के पास निर्जीव पदार्थ रहता है, परंतु शिक्षक के सामने छात्र रूपी जीती-जागती चेतनामय मूर्ति रहती है। उसकी अपनी क्रिया-प्रतिक्रिया होती है। ऐसी स्थिति में, शिक्षक का कार्य गुरुतर माना जाता है। प्राचीन काल में शिक्षा का स्वरूप भिन्न था। शिक्षा के केंद्र गुरुकुल होते थे। गुरुकुल के प्रधान आचार्य होते थे। वे शिष्यों के व्यक्तित्व का निर्माण करते थे। गुरुकुल में पढ़ने वाले छात्र महज शास्त्र या शस्त्रज्ञान नहीं प्राप्त करते थे, बल्कि वहां पर उनके पूरे व्यक्तित्व का निर्माण होता था, जिसमें चरित्र, आचरण, संस्कार, सदाचार और सुव्यवहार आदि नैतिक मूल्यों का समावेश होता था। शिक्षा का रूप एकांगी नहीं था बल्कि सवरंगीण था।
शिक्षक कक्षा में कैसे पढ़ाएं ताकि स्कूल के बच्चों का पलायन रुक सके? यह सवाल वर्तमान शिक्षकों के लिए बड़ी चुनौती है। तथाकथित कुछ शिक्षक कक्षा में जाते ही टेप की तरह बजने लगते हैं। वे यह भी नहीं समझते हैं कि बच्चे की मानसिक स्थिति क्या है? ऐसे शिक्षक बच्चों के साथ अन्याय करते हैं। ऐसी शिक्षा का समुचित प्रभाव बच्चों पर नहीं पड़ता है। वे अपनी कक्षा में बैठे तो रहते हैं, परंतु शिक्षकों द्वारा दी गई शिक्षा को मस्तिष्क में नहीं उतार पाते हैं। ठीक इसके विपरीत सफल शिक्षक वे होते हैं, जो पढ़ाने के पूर्व बच्चों की मानसिक स्थिति को भांप लेते हैं वे समझ लेते हैं कि जिस विषय को पढ़ाने जा रहे हैं उसके लिए बच्चे तैयार हैं। ऐसे शिक्षक कक्षा में जो शिक्षा देते हैं उन्हें बच्चे आसानी से ग्रहण कर लेते हैं।
[आचार्य सुदर्शन जी महाराज]

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