Sunday, January 12, 2014

नवजागरण के अग्रदूत स्वामी विवेकानंद


भारतभूमि के कालजयी युवाचार्य स्वामी विवेकानंद भारतीय नवजागरण के अग्रदूत माने जाते हैं। विदेशों में भारतीय संस्कृति की विजय पताका लहराने वाले इस युवा संन्यासी की विचार संजीवनी इतनी सशक्त है कि राष्ट्र का एक बड़ा युवावर्ग आज भी उनके व्यक्तित्व व विचारों से अपने जीवन की दिशा व दशा तय करता है। इसी कारण उनकी जयंती 12 जनवरी को राष्ट्रीय युवा दिवसके रूप में मनायी जाती है। स्वामी विवेकानंद का कहना था, ‘राष्ट्र निर्माण का महान कार्य राष्ट्र के युवाओं के मजबूत कंधों पर ही टिका है। यदि भारत के युवा बहुजन हिताय, बहुजन सुखायके मंत्र को जीवन का अंग बना लें तो किसी की सामथ्र्य नहीं कि कोई उनकी राह रोक सके। वे कहते थे, ‘मैंने नवयुवकों का संगठन खड़ा करने के लिए ही जन्म लिया है। ऐसे नवयुवक जो चरित्रवान हों, जिनका शरीर लोहे की तरह ठोस मांसपेशियों और मजबूत स्नायुओं से बना हो, जिनकी अदम्य इच्छाशक्ति ब्रह्मांड के सारे रहस्यों को भेद सकने में सक्षम हो, को पाने के लिए यदि मुझे मौत के मुंह में भी जाना पड़े तो मुझे सहर्ष स्वीकार है। मुझे यदि ऐसे सौ युवा भी मिल जाएं तो संसार का कायाकल्प हो जाए।
ऊर्जा और उत्साह के प्रेरक स्वामी विवेकानंद का जीवन दर्शन व उनके उपदेश युवाओं में एक नयी ऊर्जा व उत्साह का संचार करते हैं। चिंतन को व्यापक आयाम दें तो पाएंगे कि स्वामी जी के उपदेश भारत ही नहीं, अपितु विश्व के युवाओं के लिए भी सटीक मार्गदर्शक की भूमिका निभाते हैं। सर्वाधिक महत्वपूर्ण बात यह है कि एक परंपरागत हिंदू संन्यासी होते हुए भी उन्होंने धर्म व अध्यात्म को एक अभिनव व्याख्या दी और युवाओं को स्वयं में विास करने के लिए प्रेरित किया।
वे कहते थे, सामान्य तौर पर माना जाता है कि नास्तिक वह है जो ईर में विास नहीं करता किन्तु मेरा मानना है कि नास्तिक वह है जो स्वयं में विास नहीं करता। वस्तुत: हमारा खुद पर विास ही हमें वह सम्बल प्रदान करता है जिसके आधार पर हम बुराई से लड़कर अच्छा कार्य करने की जिम्मेदारी अपने ऊपर ले सकते हैं। वे कहते थे जिसका स्वयं में विास नहीं होगा, उसका यदि ईर में विास हो तो भी उसके जीवन में कोई उल्लेखनीय उन्नति नही हो सकती। यह संसार उन थोड़े व्यक्तियों का इतिहास है, जिन्होंने स्वयं में विास किया। विवेकानंद इस बात पर बराबर जोर देते हैं कि सवाल आध्यात्मिक विकास अथवा भौतिक विकास में से किसी एक का नहीं, अपितु दोनों के समन्वय का है। 1893 के विश्व धर्म सम्मेलन में अपनी अमेरिका यात्रा के दौरान वे वहां की भौतिक समृद्धि, उनकी वैज्ञानिक व तकनीकी कुशलता से बहुत प्रभावित हुए और उन्होंने कहा, धर्म हमारे पास बहुत है। तुम हमें भौतिक विकास के उद्योग धंधे दो, हम तुम्हें धर्म देंगे। स्वामी जी अमेरिका की कार्य संस्कृति, प्रबंधन और संगठन क्षमता से बहुत प्रभावित थे। उनका कहना था कि भारत में पांच लोग भी एक साथ मिलकर काम नहीं कर पाते क्योंकि उनकी निजी महत्वाकांक्षाएं और अहंकार टकराने लगते हैं। एक बेहतर समाज व राष्ट्र के निर्माण के लिए हमें अहंकार और निजी महत्वाकांक्षाओं का परित्याग कर परस्पर मिलकर कार्य करना होगा। यह संगठन, एकता और प्रबंधन ही पश्चिम के देशों की सफलता की कुंजी है।
 समझें अपनी शक्ति विवेकानंद कभी नहीं चाहते थे कि भारतीय युवा वर्ग किसी धर्म, परं परा या संस्कृति का अंधानुकरण करे। उनका मानना था कि मनुष्य को स्वयं अपनी शक्ति को समझना और परखना होगा। दूसरों के अलंकरण मात्र से व्यक्ति की सृजनशीलता, उसकी विशिष्ट पहचान और शक्ति दब जाती है। को ई व्यक्ति कितना महान क्यों न हो, मगर उस पर आंख मूंदकर भरोसा न करें। यदि भगवान की ऐसी ही मंशा होती तो वह हर प्राणी को स्वतंत्र आंख, कान, नाक व दिमाग क्यों देते? हर युवा को अपना रास्ता खुद चुनना और बनाना चाहिए। इससे उनका आत्मविास बढ़ेगा। आज प्राय: देखने को मिलता है कि युवा वर्ग धर्म और अध्यात्म को भौतिक विकास का विरोधी मानकर उससे अपने को दूर रखना चाहते हैं जो सही नहीं है। विवेकानंद इस बात पर बराबर जोर देते हैं कि सवाल आध्यात्मिक विकास अथवा भौतिक विकास में से किसी एक का नहीं, अपितु इन दोनों के समन्वय का है। वे विचारों की पवित्रता पर बहुत जोर देते हुए कहते थे- हमें अपने मन, वचन और कर्म में विचार शुद्धि का पालन करना चाहिए। विचार ही हमारे आचरण व व्यवहार की प्रेरक शक्ति होते हैं। इसलिए विचार हमेशा ऊंचे और सकारात्मक होने चाहिए क्योंकि एक अच्छा और सकारात्मक विचार गंभीरतम परिस्थिति में भी उम्मीद की लौ जलाये रहता है। भारतीय नवजागरण के इस महामनीषी ने 11 सितम्बर वर्ष 1893 को जब अमेरिका के शिकागो शहर में आयोजित विश्व धर्म सम्मेलन में शामिल प्रतिभागियों को सिस्टर्स एंड ब्रदर्स ऑफ अमेरिकाकहकर संबोधित किया तो तकरीबन सात हजार प्रतिभागियों वाला पूरा हॉल तालियों की गड़गड़ाहट से गूंज उठा। गेरुआ वस्त्र में दमकते गौर वर्ण और लंबी-सुडौल कदकाठी वाले स्वामी विवेकानंद ने जब वेदांत दर्शन के शून्यवादकी अभिनव व्याख्या की तो हर कोई स्तब्ध रह गया। अपने अलौकिक तत्वज्ञान से समूचे पाश्चात्य जगत को विस्मय विमुग्ध कर देने वाले विवेकानंद ने अमेरिका समेत विभिन्न पश्चिमी देशों में भारत और हिंदू धर्म की धाक जमा दी। पांच वर्षो से अधिक समय तक उन्होंने अमेरिका के विभिन्न नगरों में घूम-घूम कर व्याख्यान दिये। जर्मनी, रूस और पूर्वी यूरोप की भी यात्राएं कीं। उनके द्वारा दिए गये वेदांत के मानवतावादी गतिशील तथा प्रायोगिक संदेश ने देश-विदेश में हजारों लोगों को प्रभावित किया।
रामकृष्ण मिशन की स्थापना 12 जनवरी 1863 में कोलकाता में जन्मे स्वामी विवेकानंद के बचपन का नाम नरेंद्र था। सन 1884 में पिता की मृत्यु के पश्चात परिवार के भरण-पोषण का भार भी उन्हीं पर पड़ा। दुर्बल आर्थिक स्थिति में स्वयं भूखे रहकर अतिथियों के सत्कार की गौरव-गाथा उनके जीवन का उज्ज्वल अध्याय है। अपने शिक्षा काल में वे सर्वाधिक लोकप्रिय और अति जिज्ञासु छात्र थे। 1879 में 16 वर्ष की आयु में उन्होंने कलकत्ता से एंट्रेस की परीक्षा पास की। फिर स्नातक की परीक्षा के दौरान उनकी भेंट रामकृष्ण परमहंस से हुई जिन्होंने उन्हें विास दिलाया कि ईर वास्तव में है और मनुष्य ईर को पा सकता है। रामकृष्ण जी ने सर्वव्यापी ईर की सर्वोच्च अनुभूति कर पाने में नरेंद्र का मार्गदर्शन किया और उन्हें शिक्षा दी कि समस्त मानवता में निहित ईर की सचेतन, आराधना होनी चाहिए। गुरु का यही उपदेश विवेकानंद के जीवन का मूल दर्शन बना। गुरु के महासमाधि लेने के बाद स्वामी विवे कानंद ने एक मई 1897 में कलकत्ता में रामकृष्ण मिशन और 9 दिसम्बर 1898 को कलकत्ता के निकट गंगा नदी के किनारे बेलूर में रामकृष्ण मठ की स्थापना की। योग’, ‘ राजयोगतथा ज्ञानयोगजैसे ग्रंथों की रचना करके विवेकानंद ने यु वा जगत को एक नयी राह दिखायी है जिसका असर जनमानस पर युगों-युगों तक छाया रहेगा। रामकृष्ण परमहंस की मृत्यु के बाद स्वामी जी ने स्वयं को हिमालय में चिंतनरूपी आनंद सागर में डुबाने की चेष्टा की लेकिन जल्दी ही वह इसे त्यागकर भारत की कारुणिक निर्ध नता से साक्षात्कार करने और देश के पुनर्नि र्माण के लिए समूचे भारत में भ्रमण पर निकल पड़े। छह वर्षो के भ्रमण काल में वे राजाओं और दलितों दोनों के अतिथि रहे। उनकी यह महान यात्रा कन्याकुमारी में समाप्त हुई। 4 जुलाई, 1902 को बेलूर के रामकृष्ण मठ में उन्होंने ध्यानमग्न स्थिति में प्राण त्यागे।


prathamik shikshak

pathak diary