अक्सर यह सवाल
उठता है कि स्वतंत्रता, समानता और भाईचारे का नारा फ्रांस में ही सबसे
पहले क्यों लगा? गैर-बराबरी के विरुद्ध क्रांति फ्रांस से ही
क्यों प्रारंभ हो सकी, जबकि यूरोप के दूसरे मुल्कों में स्थिति फ्रांस
से कहीं अधिक बदतर थी? इन सबके पीछे एक ही कारण था और वह था फ्रांस की
उत्तम शिक्षा व्यवस्था और ज्ञान का प्रसार।
फ्रांस में रूसो, वाल्तेयर जैसे विचारकों की शिक्षा ने मानवीय
अधिकार, प्रजातंत्र और समानता के आदर्श के प्रति जनता
को अधिक सचेत और जागरूक बनाया। शिक्षा को लेकर भारत में भी एक लंबे समय से संघर्ष
किया जाता रहा है, फिर भी यहां का समाज नहीं बदला। इस सिलसिले मैं
इलाहाबाद उच्च न्यायालय के 19 अगस्त,
2015 के निर्णय की ओर
ध्यान आकर्षित करना चाहूंगा। इसमें न्यायाधीश ने कहा था कि प्रदेश की स्कूली
शिक्षा तभी सुधर सकती है जब मंत्रियों और अफसरों के बच्चे भी सरकारी स्कूलों में
पढ़ेंगे। अदालत का आदेश था कि जो भी अफसर, मंत्री या कर्मचारी सरकारी कोष से वेतन लेते हैं उन्हें अपने बच्चों को सरकारी
स्कूलों में पढ़ाना अनिवार्य होगा।
अभी वे ही बच्चे सरकारी स्कूलों में पढ़ते हैं जो गरीब हैं। जब अधिकारियों के
बच्चे भी इन स्कूलों में पढ़ेंगे तो सरकार को इन्हें बेहतर बनाना ही पड़ेगा।
न्यायाधीश ने प्रदेश के मुख्य सचिव को हिदायत भी दी थी कि इस काम के लिए वे जो भी
तरीका अपनाएं उसकी पूरी रिपोर्ट छह महीनों के भीतर जमा करें। साथ ही जो इस निर्णय
का पालन नहीं करे, सरकार उसके खिलाफ दंड का प्रावधान सुनिश्चित
करे। उस समय तत्कालीन अखिलेश सरकार से यह उम्मीद थी कि वह गैर बराबरी दूर करने
वाले इस आदेश का पालन करने के लिए कोई कदम जरूर उठाएगी। ऐसा नहीं हुआ। देखना है कि
योगी सरकार क्या करती है, जो राज्य की कायाकल्प कर देने का वादा कर रही
है?
इलाहाबाद उच्च न्यायालय की बातों में कुछ नया नहीं था। 1882 में ज्योतिबा फुले ने हंटर आयोग को दी गई अपनी
रिपोर्ट में कहा था कि शिक्षा के मामले में ब्रिटिश सरकार केवल उच्च जातियों की ही
मदद करती आ रही है, जबकि सरकार की आय मुख्यत: निम्न जातियों के
परिश्रम से होती है। 1911
में जब गोखले ने
इम्पीरियल असेंबली के सामने मुफ्त और अनिवार्य स्कूली शिक्षा का बिल रखा तो उसका
काफी विरोध हुआ था। वर्धा में आयोजित 1937 के राष्ट्रीय शिक्षा सम्मेलन में गांधी जी ने तत्कालीन कांग्रेस शासित सात
प्रांतों में अनिवार्य और मुफ्त स्कूली शिक्षा लाने की पूरी कोशिश की थी, मगर असफल रहे। आजादी के बाद डॉ. भीमराव अंबेडकर
ने 14 वर्ष की आयु तक मुफ्त अनिवार्य स्कूली शिक्षा
को भारतीय संविधान का अंग बनाया।
शिक्षा के जरिये गैर बराबरी दूर करने के लिए 1966 में कोठारी आयोग ने ‘पड़ोस स्कूल’ की अवधारणा दी। अर्थात प्रत्येक इलाके का अपना एक स्कूल होगा जिसमें उस इलाके
में रहने वाले सभी लोगों के लिए यह जरूरी होगा कि वे अपने बच्चों को उसी स्कूल में
पढ़ने के लिए भेजेंगे जो उनके इलाके के लिए निर्धारित किया गया है। प्रवेश में
गरीब-अमीर, जाति-धर्म, मालिक-मजदूर, जमींदार-किसान आदि के आधार पर किसी भी प्रकार
का भेदभाव नहीं किया जाएगा। 1968 में बनी देश की पहली शिक्षा समिति ने कोठारी के विचारों का समर्थन किया।
1986 में बनी दूसरी शिक्षा समिति और 1992 की संशोधित समिति ने भी इसका अनुमोदन किया। जयप्रकाश नारायण ने भी कोठारी आयोग
द्वारा प्रतिपादित पड़ोस स्कूल की अवधारणा के लिए आवाज उठाई। दुख की बात है कि
इतना सबकुछ होने के बाद भी स्थिति बदली नहीं है।
आज से 135
बरस पहले जिस
समस्या की ओर फुले ने हमारा ध्यान आकर्षित किया था वह आज भी बरकरार है। कोई भी
सरकार शिक्षा में गैर बराबरी दूर करने में सफल नहीं हो सकी है। सभी ने एकसमान
शिक्षा व्यवस्था की ओर कदम बढ़ाने के बजाय गैर बराबरी बढ़ाने वाली नीति अपनाई है।
मॉडल स्कूलों के नाम पर खास वर्गो के लिए स्कूल बनाए गए। केंद्रीय विद्यालय, सैनिक स्कूल और नवोदय विद्यालयों की स्थापना की
गई। फीस के नाम पर लाखों रुपये वसूलने वाले प्राइवेट स्कूलों ने तो इन सभी को काफी
पीछे छोड़ दिया। इन स्कूलों की फीस अब और ज्यादा समस्या बन गई है। अनगिनत संख्या
में बने सरकारी स्कूल इन स्कूलों से बिल्कुल अलग हैं, जबकि इन्हीं में देश की बहुसंख्यक जनता अपने
बच्चों को पढ़ने के लिए भेजती है। यह एक सर्वमान्य धारणा बन चुकी है कि सरकारी
स्कूलों में पढ़ाई नहीं होती और विद्यार्थियों को मामूली सुविधाएं भी उपलब्ध नहीं
होतीं।
औसतन प्रत्येक स्कूल में तीन अध्यापक हैं। जो हैं उनमें कुछ ही पढ़ाने में
दिलचस्पी रखते हैं। जब तक सरकार में बैठे लोग स्वयं इन कमियों का अनुभव नहीं
करेंगे तब तक सरकारी स्कूलों की दशा सुधरने वाली नहीं। इलाहाबाद हाईकोर्ट ने
शिक्षा व्यवस्था को सुधारने का एक अच्छा मौका दिया था। ऐसा लगता है कि वह मौका
गंवा दिया गया। हमारे नीति-नियंताओं को यह पता होना चाहिए कि शिक्षा ही एकमात्र
साधन है जिसके माध्यम से एक बेहतर समाज का निर्माण करना संभव है। अच्छा होगा कि
सरकारें शिक्षा को सुधारने के साथ समान पाठ्यक्रम पर विशेष ध्यान दें। इसमें देरी
का कोई औचित्य नहीं, क्योंकि पहले ही बहुत देर हो चुकी है।
उदय प्रकाश अरोड़ा
(लेखक जेएनयू के पूर्व ग्रीक चेयर प्रोफेसर हैं)
साभार दैनिकजागरण