अपनी
सेना से बिछड़कर शिवाजी एक ऐसी स्थान पर जा पहुंचे जहां दूर-दूर तक आबादी दिखाई न
देती थी। अंधेरा हो चला था। तभी कुछ दूर पर उन्हें रोशनी दिखाई दी। वे उधर गये और
एक झोपड़ी के सामने आ खड़े हुए। एक बुढ़िया बाहर आई और उन अभ्यागत को झोपड़ी के
अन्दर ले गई। शिवाजी थके होने के साथ-साथ भूखे भी थे। बुढ़िया ने यह अनुभव कर
लिया। उसने हाथ मुंह धोने के लिए गर्म पानी दिया और बैठने के लिए चटाई बिछा दी।
शिवाजी हाथ मुंह धोकर आराम से बैठ गए। कुछ ही समय के बाद बुढ़िया ने एक थाली में
पकी हुई रोटियां परोस दी।
शिवाजी असहनीय रूप से भूखे थे।
तुरन्त रोटियों का बड़ा सा कौर भरा। तभी चिल्लाए और हाथ झटकने लगे। रोटियां बहुत
गर्म थीं।
बुढ़िया ने देखा तो बोली तू भी शिवा जैसे स्वभाव का मालूम
होता है। शिवाजी ने पूछा माता! तूने शिवा से मेरी तुलना किस आधार पर की?”
बुढ़िया बोली जिस प्रकार शिवा
आस-पास के छोटे किले न जीकर बड़े-बड़े किले जीतने की उतावली करता है उसी प्रकार
तूने भी किनारे-किनारे की ठंडी रोटियों को खाना शुरू न करके बीच में से बड़ा कौर
भरकर हाथ जला लिया। बेटा उतावली से काम बनता नहीं बिगड़ता है। मनुष्य की उन्नति के
लिए छोटे-छोटे कदम बढ़ाते हुए सावधानी और धैर्य के साथ आगे बढ़ना चाहिए। उतावली के
साथ बड़े-बड़े कदम उठाकर कोई बड़ा लक्ष्य नहीं पाया जा सकता। जिस दिन शिवा
छोटे-छोटे किलों से अपना विजय-अभियान प्रारम्भ करेगा उसी दिन से उसे कभी पीछे हटने
की आवश्यकता न होगी, और एक
दिन ऐसा आयेगा जब वह अपने मनोनीत लक्ष्य को प्राप्त कर लेगा।
शिवाजी ने बुढ़िया की सीख गांठ
बांध ली, जिसके फलस्वरूप उन्होंने इतिहास में
गौरव पूर्ण स्थान प्राप्त कर लिया।
इस कहानी से हमें ये शिक्षा मिलती है कि किसी भी लक्ष्य की
प्राप्ति के लिए उतावला न होकर जो धैर्यवान व्यक्ति दृढ़तापूर्वक धीरे-धीरे आगे
बढ़ते हैं वे अवश्य सफल होते हैं।
सोशल मीडिया से