ऐसे बदली प्रधानाध्यापिका की सोच...
एक सरकारी स्कूल में प्रधानाध्यापिका हूं। चूंकि हमारा विद्यालय ग्रामीण क्षेत्र का है, इसलिए अधिकांश बच्चों के अभिभावक गरीब, अनपढ़ व किसान-मजदूर वर्ग के हैं। चूंकि अभिभावकों को अधिक जानकारी नहीं हो पाती, इसलिए वे जब भी स्कूल में किसी काम से आते, तो वे जरा-जरा सी बात को बार-बार पूछते रहते थे। उनके बार-बार सवाल करने के कारण मैं अक्सर झुंझला जाती थी और उन्हें गुस्से से जवाब देना शुरू कर देती थी। एक तरफ तो काम का बोझ, ऊपर से उनकी नासमझी भरी बातें, ये सब मुझे बर्दाश्त नहीं होता था। जब वे ग्रामीण ज्यादा ही बात करने की कोशिश करते, तो मैं गुस्से में उबल पड़ती।
एक दिन मेरे जीवन में ऐसी घटना घटी कि मेरी आंखें खुल गईं और मुझे अनपढ़ अभिभावकों के प्रति अपने व्यवहार में परिवर्तन करना पड़ा। हुआ यूं कि मैं किसी कार्यवश बैंक में गई थी। मैंने वहां एक ग्रामीण महिला को देखा, जो अनपढ़ थी। वह अपने पैसे निकलवाने के लिए फॉर्म भरवाना चाह रही थी, परंतु हर कोई उसे टाल देता। सभी को अपने अपने काम करवाने की जल्दी थी। कोई उसका फॉर्म भरने को तैयार नहीं था। बैंक के कर्मचारी ने भी उसे फॉर्म भरवाने के नाम पर डपट दिया कि पता नहीं कहां-कहां से चले आते हैं ये जाहिल लोग? न खुद काम करना जानते हैं, न हमें काम करने देते हैं।
मुझे उस कर्मचारी पर बहुत क्रोध आया। मुझे महसूस हुआ कि वह महिला पढ़ी-लिखी नहीं है, इसलिए उसे दूसरों से छोटे से काम के लिए मिन्नत करनी पड़ रही है। मैंने उसका फॉर्म लेकर भरा तथा उसे यह भी समझाया कि कहां-कहां अंगूठा लगाना है। तभी मेरे मन में अचानक खयाल आया कि जैसा व्यवहार उस महिला के साथ बैंक कर्मचारियों ने किया, वैसा ही व्यवहार मैं भी तो अपने विद्यालय में अभिभावकों के साथ करती हूं। यदि हम पढ़े-लिखे लोग ही ऐसा करेंगे तो ये लोग अपने कार्य किससे करवाएंगे। यदि ये ग्रामीण इन कार्यों के लिए हम पर निर्भर हैं, तो हम भी तो मजदूरी वाले कार्यों के लिए इन पर निर्भर हैं।
उस दिन से मेरा शिक्षित होने का अभिमान टूट गया। अब मैं बच्चों के अभिभावकों से नम्रता से पेश आती हूं तथा उन्हें यथासंभव अपनी बात उनके शब्दों में समझाने का प्रयास करती हूं।
(अर्चना शर्मा, मुरादाबाद (उ.प्र.)
साभार दैनिकजागरण