Sunday, December 21, 2014

और भी हैं बोझ बस्ते के सिवाय

जो उम्र खेलने-खाने और शरारतें करने की होती है, आज उसी उम्र में बच्चों पर कई तरह का बोझ लाद दिया जाता है। पढ़ाई का बढ़ता बोझ, कक्षा में दूसरे से बेहतर करने का दबाव और तरह-तरह की एक्टिविटीज में बेहतर परफॉर्म करने का जोर। इसके साथ ही माता-पिता की अपेक्षाएं कि वह हर प्रतिस्पर्धा में अव्वल आये। ऐसे में हमारे नौनिहालों का बचपन कहीं खोता सा जा रहा है। बस्ते का बोझ तो सभी को नजर आता है लेकिन क्या हमें अपने बच्चों के ऊपर लादे गये इन छिपे बोझों का अहसास है?
 बच्चों पर बोझ की जब भी र्चचा की जाती है तो उसका मतलब स्कूल ले जाने वाले बस्ते के बोझ से ही होता है। लेकिन हकीकत में आज स्कूल जाने वाले बच्चों के कंधों पर महज एक बस्ते का बोझ भर नहीं है। सच यह है कि आधुनिक जीवनशैली और कामयाब करियर का जो मानसिक बोझ बच्चों के दिलो-दिमाग पर हमने डाल रखा है, वह कंधों पर लटके बस्तों से कहीं बड़ा और ज्यादा वजनी बोझ है। विडंबना यह है कि इंटरनेट और दूसरी सूचना संचार सुविधाओं ने इस बोझ में किसी तरह की कोई कमी करने के बजाय उल्टे इसमें इजाफा किया है। आज की तारीख में गूगल को ध्यान में रखते हुए टीचर बच्चों को किसी भी तरह का होमवर्क दे देते हैं। उन्हें लगता है गूगल तो है ही, बच्चे इससे सब कर लेंगे। टीचर ये नहीं समझते कि इस होमवर्क मैनिया से बच्चों का मानसिक विकास नहीं हो रहा उल्टे उनमें लगातार तनाव का मानसिक बोझ बढ़ रहा है। तनाव की बड़ी वजह स्कूल कुछ साल पहले एनसीईआरटी की पाठ्यक्रम समिति द्वारा पेश किए गये राष्ट्रीय पाठ्यक्रम की रूपरेखा में इस बात पर भी जोर दिया गया था कि पढ़ने वाले बच्चों को भारी बोझ से कैसे निजात दिलायी जाये। इस पर अब भी न सिर्फ लगातार र्चचा हो रही है बल्कि इसे बच्चों की एक बड़ी समस्या के रूप में चिन्हित किया जा रहा है। पहले भी कई शैक्षिक सुधार समितियों के सुझाव समय- समय पर आते रहे हैं, जिससे किसी हद तक बच्चों के बोझ में कुछ कमी भी आयी है। लेकिन सवाल है कि क्या बस्ता ही एकमात्र बोझ है बच्चों पर? नहीं, बस्ते के अलावा भी बच्चों पर कई तरह के बोझ हैं। सच तो यह है कि अब पूरी दुनिया में गंभीरता से महसूस किया जा रहा है कि बच्चों पर हाल के सालों में कम ही समय में बहुत कुछ जान लेने और ज्यादा परिपक्व व ज्यादा कम्पलीट विकास का दबाव है। इस कारण आज पूरी दुनिया में बच्चों के तनाव का स्तर लगातार बढ़ रहा है। अमेरिका की यूनिवर्सिटी ऑफ मिशिगेन में मनोविज्ञान के प्रोफेसर हेरोल्ड स्टीवेंशन के हाल में प्रकाशित एक अध्ययन के अनुसार हाईस्कूल में पढ़ने वाले एक-तिहाई बच्चे हर समय तनाव का शिकार रहते हैं।बच्चों पर किए गये इस शोध के अनुसार बच्चों के तनाव की वजह उनका स्कूल है, न कि वह दिखने वाला बस्ते का बोझ जिसे ज्यादातर लोग चिन्हित करते हैं। बो झ
डॉ. स्टीवेंशन के अनुसार अभिभावक बच्चों के एकेडमिक स्टैंर्डड पर ज्यादा जोर देते हैं। ऐसे में बच्चों की भावनात्मक जरूरतों की पूरी तरह अनदेखी की जाती है। इसी तरह स्कूल भी बच्चों को कम समय में ज्यादा से ज्यादा जानकार बनाने के चक्कर में उन पर लगातार अधिक से अधिक होमवर्क करने और ज्यादा से ज्यादा बातें कम समय में जान लेने का दबाव डालते हैं। यह स्थिति पूरी दुनिया में है। भारत में भी स्थिति इससे कोई अलग नहीं है। इन तमाम शोधों से यह निष्कर्ष उभरकर आये हैं कि बच्चों में तनाव पैदा करने की सबसे बड़ी भूमिका उनके माताप्िाता और स्कूल निभाते हैं। न्यूयार्क सिटी के माउंट सिनाई स्कूल ऑफ मेडिसिन में स्ट्रेस प्रोग्राम के डायरेक्टर डॉ. जॉर्जिया विटकिन के अनुसार आजकल माता-पिता बच्चों को अपना समय ही नहीं दे पाते और न ही वे उनकी भावनाओं , उनके जीवन अनुभवों को शेयर कर पाते हैं। बच्चे अपनी व्यस्त दिनर्चया से परे शान नहीं हैं, उसकी वजह से वे तनावग्रस्त नहीं हो ते। दरअसल, वे अपने माता-पिता की व्यस्त दिनर्चया की वजह से तनावग्रस्त होते हैं। इसी तरह का माहौल स्कूलों में अध्यापकों और छात्रों के बीच भी बन रहा है। एक जमाने में छात्रों और अध्यापकों के बीच बेहद आत्मीय रिश्ते होते थे। अध्यापक तब बच्चों को व्यक्तिगत रूप से बहुत कुछ सिखाने की कोशिश करते थे। जिससे वे सीखते भी थे और भावनात्मक संबल भी हासिल करते थे। लेकिन अब सिखाने के ज्यादातर स्रेत तकनीकी हो गए हैं इसलिए बच्चे इनसे सहायता पाने के बावजूद भावनात्मक रूप से इन स्रेतों से नहीं जुड़ पाते। विभिन्न अध्ययनों से यह बात भी सामने आयी है कि पिछले 6-7 साल पहले बच्चों द्वारा होमवर्क को दिये जाने वाले समय में दोगुनी बढ़ोतरी हो गयी है। बच्चे होमवर्क, ट्यूशन, एक्स्ट्रा क्लासेज, एक्स्ट्रा पढ़ाई की वजह से ओवर र्बडन का शिकार हो रहे हैं। कक्षा में कराये गये काम को घर में आकर खत्म करते हैं और ट्यूटर के जाने के बाद ट्यूशन का काम करते हैं। बच्चों को दिया जाने वाला होमवर्क अक्सर पूरा भी नहीं हो पाता है। मुश्किल प्रोजेक्ट्स, लंबा होमवर्क बच्चों के बीच तनाव की एक बड़ी वजह बन गया है। छोटी कक्षा में तो बच्चे धीरे-धीरे इस रुटीन से एडजस्ट कर लेते हैं लेकिन बड़ी क्लास में बच्चों के लिए अपना होमवर्क, एसाइनमेंट्स, प्रोजेक्ट्स को समय पर पूरा कर पाना मुश्किल हो जाता है। लगातार बच्चों के दिलोदिमाग पर पढ़ाई का बोझ उन्हें तनावग्रस्त बनाता रहता है। मजे की बात यह है कि इसकी वजह से बच्चा लगातार पढ़ाई में पिछड़ने लगता है। लगातार तनाव में रहने से छोटे बच्चों और बड़े बच्चों दोनों पर इसके अलग- अलग तरह के प्रभाव दिखायी देने लगते हैं। मनोविदों के अनुसार, छोटे बच्चे अधिक तनाव की वजह से हाइपरएक्टिव हो जाते हैं तो बड़े बच्चे भावनात्मक समस्याओं का शिकार हो डिप्रेशन में चले जाते हैं। बच्चों की पढ़ाई के व्यस्त शिड्यूल से मांओं को भी तनाव रहता है। स्कूल से लौटकर आने के बाद थके-मांदे बच्चे जब सो जाते हैं तो हर हाल में उन्हें एक नियत समय पर उठाना जरूरी होता है वरना उनका होमवर्क ही पूरा नहीं हो पाता। बच्चे यदि ज्यादा समय तक सोना चाहें, रिलैक्स होना चाहें तो वे ऐसा नहीं कर सकते। बड़े बच्चों की व्यस्त दिनर्चया, स्पोर्ट्स और एक्स्ट्रा कैरिकुलर एक्टिविटी के कारण उनके पास रिलैक्स होने का तो बिल्कुल भी समय नहीं होता। इस पूरी कवायद में मां बाप भी कम दोषी नहीं होते। दरअसल, आज हर माता-पिता बच्चों से पढ़ाई में भी अव्वल रहने पर स्पोर्ट्स और अन्य गतिविाियों में भी उससे ए-ग्रे ड लाने की उम्मीद करते हैं। अभिभावकों की बच्चों से अपेक्षा होती है कि वे अच्छे अंक लायें। इसके अलावा स्कूलों की भी कला, स्पोर्ट्स, म्यूजिक जैसे तमाम प्रतियोगिताएं आयोजित की जाती हैं। इन प्रतियोगिताओं में भी बच्चों को अव्वल आने के लिए लगातार उन पर दिमागी बोझ डाला जाता है। व्यवहार में बदलाव स्कूलों में भी लगातार शिक्षकों पर अच्छे नतीजे लाने के लिए दबाव बनाया जाता है। 12वीं कक्षा में अच्छे नतीजे देने वाले स्कूलों को ही बेस्ट कैटेगरी में रखा जाता है। यह कोई अकेले हिंदुस्तान का किस्सा नहीं है पूरी दुनिया में यही हो रहा है। पब्लिक स्कूलों में तो क्लास टेस्ट में अच्छे मार्क्‍स न लाने वाले बच्चों के अभिभावकों को उसकी परफॉम्रेस सुधारने की सलाह दी जाती है। अन्यथा उन्हें स्कूल से बाहर कर दिये जाने की धमकी दी जाती है। आजकल स्कूलों में नालायक बच्चों को रखने की कतई छूट नहीं दी जाती है। अच्छा परफॉर्मे कर पाने में अक्षम बच्चे पढ़ने के मूलभूत अधिकार से भी वंचित कर दिये जाते हैं। बच्चों में लगातर बढ़ते तनाव के लक्षणों की अधिकतर माता-पिता नोटिस ही नहीं कर पाते। बच्चे का बदला व्यवहार उन्हें उसकी बढ़ती उम्र की समस्या मान बैठते हैं। हकीकत में ऐसा नहीं है। बच्चे के व्यवहार में आने वाले आकस्मिक बदलाव पर ध्यान दिया जाना जरूरी है। यदि बच्चा अपने दोस्तों के साथ बहस करने लगे, उनके साथ लड़ाई-झगड़ा करे तो समझें कि वह तनाव का शिकार हो गया है। अधिक चिल्लाकर बात करना, गुस्से से भरा रहना, चिड़चिड़ापन यह सभी पढ़ाई से उपजे तनाव के शुरुआती लक्षण होते हैं। इनकी पहचान करके बच्चे का इससे बचाव के लिए सोचना चाहिए।
विभिन्न अध्ययनों से यह बात भी सामने आयी है कि पिछले 6-7 साल पहले बच्चों द्वारा होमवर्क को दिये जाने वाले समय में दोगुनी बढ़ोतरी हो गयी है। बच्चे होमवर्क, ट्यू शन, एक्स्ट्रा क्लासेज, एक्स्ट्रा पढ़ाई की वजह से ओ वर र्बड न का शिकार हो रहे हैं
स्कूलों में भी लगातार शिक्षकों पर अच्छे नतीजे लाने के लिए दबाव बनाया जाता है। 12वीं कक्षा में अच्छे नतीजे देने वाले स्कूलों को ही बेस्ट कैटेगरी में रखा जाता है। यह कोई अकेले हिंदुस्तान का किस्सा नहीं है, पूरी दुनिया में यही हो रहा है
कैसे कम करें बच्चों का मानसिक बोझ बच्चों के होमवर्क को एक निश्चित समय-सीमा से बांधें। इस समय को टेस्ट के दिनों में भले बढ़ा दें। उसे मॉर्निग- इवनिंग वॉक के लिए समय दें ताकि वह स्ट्रेस फ्री हो सके। उसे बार-बार पढ़ाई के लिए न कहें। बीच-बीच में प्रशंसा द्वारा उसके आत्मबल को बढ़ाएं। अच्छे ग्रेड न लाने पर उसे डांटे-डपटें नहीं। बच्चे को अधिक से अधिक समय दें व फीलिंग शेयर करें। उसकी क्षमताओं के अनुरूप ही उससे अपेक्षा करें। लक्ष्य और प्रयासों के बीच एक संतुलन कायम करें। स्वयं को भी तनावमुक्त रखें। अपनी अधूरी इच्छाएं, महत्वाकांक्षाओं को बच्चों पर न लादें।
- वीना सुखीजा
साभार राष्ट्रीय सहारा

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