सरकार
में बैठे लोग यह समझ चुके हैं कि देश की साक्षरता-दर न बढ़ी, तो अरबों रुपये की कल्याणकारी योजनाएं साल-दर-साल पानी में
डूबती रहेंगी। देश में प्राथमिक शिक्षा की पहुंच अधिकाधिक लोगों तक बनाने के नए-नए
प्रयोग चल रहे हैं। यह भी स्वीकार किया जाने लगा है कि हमारी पाठ्य-पुस्तकों में
कोई कमी है,
तभी बच्चा वाक्यों को ‘डिकोड’ करना सीख
लेता है, पर उसके व्यावहारिक इस्तेमाल से
अनभिज्ञ रहता है। यह भी स्वीकार किया जाने लगा है कि सरकारी स्कूलों की हालत
सुधारे बगैर प्राथमिक शिक्षा को पटरी पर लाना असंभव है। देश में लाखों लाख सरकारी
स्कूल तो हैं,
लेकिन इनमें से कितने लाख किस
हालत में हैं,
यह किसी से छिपा नहीं है।
इसके बावजूद जिला प्राथमिक
शिक्षा कार्यक्रम, सर्वशिक्षा
अभियान, जनशाला, साक्षर भारत और ऐसी ही कई योजनाओं से सरकारी स्कूलों में शिक्षा की
गुणवत्ता बनाए रखने के प्रयास हो रहे हैं। अब गांव-गांव के स्कूलों तक बच्चों की
पुस्तकें पहुंच रही हैं। हर शिक्षक को प्रतिवर्ष 500 रुपये दिए जा रहे हैं कि वे अपनी पसंद की शिक्षण-सहायक सामग्री
खरीद लें। सवाल है कि इतनी पुस्तकें तो हैं, लेकिन
पाठक नहीं हैं। यह सत्य का दूसरा पहलू है। पढ़ने वाले तो हैं, पर पुस्तकों को पाठकों तक पहुंचाने में कई व्यवधान हैैं- समय
नहीं हैं, साधन नहीं हैं और स्थान नहीं हैं। मगर
इन तीन ‘स’ के बीच जिन शिक्षकों के पास चौथा ‘स’ है, वहां पुस्तकें पाठकों तक पहुंच रही हैं। बच्चे उनका मजा उठा
रहे हैं, उनका शैक्षिक व बौद्धिक स्तर भी ऊंचा
हो रहा है। यह चौथा ‘स’ है- संकल्प। कुछ नया करने व मिलने वाले वेतन को न्यायोचित
ठहराने का संकल्प।
अनियोजित व आकस्मिक या मनमर्जी
से समय का इस्तेमाल बच्चों की रचनात्मकता विकसित करने में महत्वपूर्ण भूमिका अदा
करता है। इससे बच्चों को उनकी पढ़ाई की एक जैसी दिनचर्या से छूट मिलती है और उनकी
आत्म-निर्भरता बढ़ती है। मिशिगन यूनिवर्सिटी के सामाजिक शोध विभाग ने हाल ही में इस
बारे में एक शोध किया था। बच्चों का जीवन स्कूल व घर, दोनों जगह बड़ों द्वारा बनाए गए कानूनों व टाइम-टेबिल से बंधा
होता है। यहां तक कि बड़ों के लिए बने खेल भी बच्चों को तनाव देते हैं, क्योंकि उनमें बड़ों के मानसिक स्तर के नियम, बंधन होते हैं, जीतने का
तनाव होता है। जरा बच्चों को अपने खुद के खेल, उसके कायदे-कानून बनाने का मौका दें। या फिर स्कूल में बच्चों की
दिनचर्या में अचानक बदलाव करें। जैसे किसी दिन पहले गणित पढ़ाई, तो अगले दिन की शुरुआत हिंदी से की जा सकती है। खेल के समय, बाल सभा, बाहर
घूमने, प्रकृति विचरण जैसी गतिविधियों के लिए
बगैर किसी पूर्व सूचना के समय निकालें।
आमतौर पर स्कूलों में खेल का
समय बीच में या फिर आखिर में होता है, जबकि 10-12 साल के बच्चों के लिए भौतिक मेहनत
उनके सीखने व याद करने की प्रक्रिया में ग्लूकोज जैसा काम करती है। अत: स्कूलों
में खेल-कूद जैसी गतिविधियां शुरू में ही रखी जाएं, तो बेहतर होगा। इससे बच्चे का मन स्कूल में भी लगेगा, साथ ही वे शारीरिक रूप से बौद्धिक कार्य करने को तैयार भी
होंगे। प्राथमिक स्कूल के शिक्षक की भूमिका बच्चे को ज्ञान देने वाले या फिर
मनोरंजन करने वाले से अधिक उसके सहयोगी का होना चाहिए। वह केवल यह देखे कि बच्चा
किस दिशा में जा रहा है? पहले-पहल
चलना सीखते समय लड़खड़ाना वाजिब है। सीखने की शुरुआती प्रक्रिया में लड़खड़ाने पर
शिक्षक को तत्काल सम्हालने की कोशिश से बचना चाहिए। बच्चे अपने अनुभव और प्रयोगों
से जल्दी व ज्यादा सीखते हैं। बच्चों में सृृजनात्मकता विकसित करने के लिए उनको
अपने परिवेश से ही उदाहरण चुनने के लिए प्रेरित करना चाहिए। खेत-खलिहान के काम, मवेशी चराने, गृहिणी
के दैनिक कार्यों, मकान या
सड़क बना रहे मजदूरों की गतिविधियों में भी सृजनात्मकता के लक्षण देखे जा सकते हैं।
शिक्षक, समाज और बच्चों के बीच दिनोंदिन बढ़ रहे अविश्वास को समाप्त
करने के लिए कुछ छोटी-छोटी जिम्मेदारियां साझा करने के प्रयोग शुरू करने चाहिए। इस
कार्य में बच्चे और समुदाय, दोनों का
शामिल होना जरूरी है। गांव-मुहल्ले का छोटा सा पुस्तकालय इस दिशा में एक रचनात्मक
पहल हो सकता है।
पंकज चतुर्वेदी, वरिष्ठ पत्रकार
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