कृष्ण तो राधाकृष्णन में भी
आश्रम है गुरु
सांदीपनि का जहां कृष्ण व बलराम वन से लकड़ियां काट कर लौटे हैं। इन्हीं लकड़ियों
को जलाकर गुरुमाता भोजन बनाएंगी। गुरु जानते हैं कि ये दोनों शिष्य विशिष्ट हैं।
मथुरा में किए गए उनके असाधारण पराक्रम की कथाएं इस सुदूर आश्रम तक भी आ पहुंची
हैं पर शिष्यों की वर्गीय श्रेष्ठता से गुरु प्रभावित नहीं। निर्धन सुदामा और
राजकुमार कृष्ण में अंतर नहीं करते गुरु। गुरुकुल के नियमों का बंधन सबके लिए है।
अपने कर्तव्यबोध को चरम तक ले जाने के कारण ही सांदीपनि व कृष्ण गुरु-शिष्य परंपरा
के मानक बने। संयोग से इस बार जन्माष्टमी और शिक्षक दिवस एक ही दिन पड़े हैं तो यह
अवसर है यह समझने का कि शिष्य को गढ़ने के लिए गुरु से क्या अपेक्षित है। राम
मर्यादा के प्रतीक पुरुष हैं और गंगा भारतीय अस्मिता की, किंतु यह कृष्ण हैं जो दीवाना
बनाते हैं। वही हैं जिनके पास मीरा और चैतन्य हैं। धार्मिक आख्यानों में ऐसे
दृष्टांत कम हैं जहां राम का बचपन खिलकर आया हो, परंतु
कृष्ण की बाल लीलाएं घर-घर कही-सुनी जाती हैं। वात्सल्य का शिखर हैं यशोदा। पूर्ण
पुरुष हैं कृष्ण जो राधा के साथ लालित्य, प्रेम और समर्पण
का ऐसा मोहक संसार रच देते हैं कि याद ही नहीं रह जाता राधा आयु में उनसे बड़ी हैं,
उनकी संबंधी हैं। कृष्ण के ही बस का था जो वह अजरुन व द्रोपदी
जैसे स्वयं सक्षम पति-पत्नी के समान रूप से प्रिय हो पाते। कृष्ण चक्रधारी हैं पर
उनका नाम लो तो चक्र नहीं, बांसुरी दिखती है। संगीत उपासक
हैं कृष्ण। द्रोणाचार्य और सांदीपनि के चरित्र में वह सब कुछ है जो गुरु में होना
चाहिए या नहीं होना चाहिए। दरबारी द्रोण सत्य को जानते हैं पर उसके समर्थन का साहस
नहीं जुटा पाते। राज-परिवार से मिलने वाला वेतन, आचार्य
का पद और निर्धन अतीत द्रोण को पूरी महाभारत में अनीति व अनाचार के पाले में खड़ा
रखते हैं। ब्राह्मण द्रोण अपनी मानसिक दासता से मुक्त नहीं। समस्त सैनिक योग्यताओं
के बाद भी वह भीष्म की तरह दृढ़ नहीं। उधर सांदीपनि हैं जो प्रसिद्ध राजकुमारों को
भी पढ़ाने के लिए महलों में नहीं गए। उनके पास द्रोण के जैसे शिष्यों की कतार नहीं
पर उन्होंने एक ही ऐसा शिष्य दे दिया जिसके पीछे द्रोण के सारे शिष्य चले। द्रोण
के यशचंद्रमा में एकलव्य की शोक-कथा का कलंक है। गुरुदक्षिणा जैसी श्रेष्ठ परंपरा
को हीन बना देते हैं द्रोण, जबकि सांदीपनि गुरुदक्षिणा
में वर्षो पहले खो गए अपने पुत्र ऋत का पता लगाने का आग्रह कृष्ण से करते हैं।
उनका पुत्र वियोग मार्मिक है। सांदीपनि सिद्ध करते हैं कि गुरुदक्षिणा
स्वार्थपूर्ति का साधन नहीं। वह तो शिष्य का विनम्र कृतज्ञता ज्ञापन है जिसे गुरु
को उतनी ही उदारतापूर्वक स्वीकार करना चाहिए। सांदीपनि पहले गुरु नहीं थे कृष्ण
के। उनके आश्रम में आने से पूर्व आचार्य श्रुतिकेतु से संगीत की शिक्षा ले चुके थे
कृष्ण। वृंदावन और मथुरा में वह नटखट, प्रेमी और वीर
विख्यात थे। फिर भी वह सांदीपनि के आश्रम भेजे जाते हैं तो इसलिए, क्योंकि घर के बड़ों को लग रहा था कि कृष्ण, बलराम
को ऐसा गुरु चाहिए जो उन्हें विविध विषयों का ज्ञान दे सके। सत्ता के वैभव से दूर
वन में रहकर गुरुकुल चलाने वाले सांदीपनि से अच्छा गुरु भला हो भी कौन सकता था। द्रोण
के समकालीन हैं सांदीपनि, पर अपने आचरण से गुरुपद को
प्रतिष्ठित करते हैं। सांदीपनि वर्तमान गुरुओं के लिए सीख हैं। आज का अध्यापक जब
यह शिकायत करता है कि बच्चे सुनते नहीं तो यह कहते हुए क्या वह एक बार भी अपने
भीतर झांकता है कि कमी कहीं उसमें तो नहीं। ट्यूशन नामक बीमारी ने शिक्षा को
प्राइवेट लिमिटेड बना दिया है। प्राइवेट डायग्नोस्टिक सेंटर जिस प्रकार सरकारी
अस्पताल के बिस्तर से मरीज को जांच के लिए उठा ले जाते हैं, ठीक वैसे ही कुछ कोचिंग संस्थान स्कूल की इमारत में घुसकर बच्चों को
पढ़ाते हैं। स्कूल यह चिंता नहीं करता कि अभिभावक ने उसे फीस बच्चे को पढ़ाने के
लिए दी है न कि स्कूल समय में कोचिंग से पैसा लेकर उसकी क्लास लगवाने के लिए।
शिक्षक-छात्र संबंधों को खराब करने में सरकार भी पीछे नहीं है। गांव में प्रधान जी
या उनके पति जी की दया पर आश्रित कर दिया गया है शिक्षक। अब या तो सरकार शिक्षक से
पढ़ाई करवा ले या उससे स्कूल की बिल्डिंग बनवा ले, जनगणना
करा ले। शिक्षक भी कम नहीं। बेसिक शिक्षा अधिकारी खूब जानते हैं कि कुछ शिक्षक
गांव पढ़ाने ही नहीं जाते। उन्होंने अपनी जगह अपने आधे या तिहाई वेतन पर बेरोजगार
रख छोड़े हैं। शिक्षा भी शिकमी किराएदारी हो गई है। समस्या बढ़ाने में वे पैरेंट्स
टीचर मीटिंग भी कम नहीं जिन्होंने शिक्षक को और अधिक उपलब्ध कर दिया, अभिभावक और उसके बीच मर्यादा का रिश्ता झीना कर दिया। लखनऊ-दिल्ली के
मंत्री इस वास्तविकता की तरफ पीठ करके बैठ गए हैं। वे यह सोचना ही नहीं चाहते कि
भविष्य यदि आज के छात्र हैं तो उन्हें संवारने वाले शिक्षकों को कास्मेटिक सर्जरी
नहीं, बल्कि शिक्षा के प्रति सरकार का पूरा ध्यान चाहिए।
कृष्ण अनूठे हैं। शिक्षक और पिता में अंतर नहीं, गोविंद
से पहले गुरु का नाम लेना सिखाती है हमारी संस्कृति पर सम्मान जनरल स्टोर पर नहीं
मिलता, उसे अर्जित करना पड़ता है। शिक्षक को छात्र से
सम्मान चाहिए तो पहले उसे अपने आचरण की शुद्धता का उदाहरण रखना होगा। समय के पाबंद,
विद्वान और अनुशासित शिक्षक की अवहेलना विद्यार्थी कर ही नहीं
सकता। योग्यता जातिमुक्त होती है। वशिष्ठ ब्राह्मण व महर्षि थे, किंतु दो राजकुमारों को अवतारी परिचय देने का कौशल क्षत्रिय
विश्वामित्र ने कर दिखाया। शिक्षकों के प्रेरणास्नोत वह डॉ. राधाकृष्णन होने चाहिए
जिनके नाम पर शिक्षक दिवस मनाया जाता है। शिष्य उनकी वर्षगांठ मनाना चाहते थे पर
डॉ. राधाकृष्णन ने मना कर दिया। उन्होंने कहा मनाना है तो शिक्षकों के सम्मान में
पांच सितंबर को शिक्षक दिवस मनाओ। यह उनकी विद्वता व व्यक्तित्व की दृढ़ता थी
जिसके आगे विद्यार्थी नतमस्तक हुए। शिक्षक की भूमिका अतुल्य है। वह चाणक्य जैसा
हुआ तो राष्ट्र निर्माता होगा। शिक्षक दिवस पर शिक्षक स्वयं मनन करें और सरकार भी
उन्हें वरीयता दे।
साभार दैनिकजागरण