Friday, January 23, 2015

नई तालीम की कहानी : भाग ए‍क

मद्रास में 1937 की अगस्त का वह दिन भी स्कूल के सामान्य कामकाजी दिनों की तरह ही शुरू हुआ था। मुझे भी कक्षाएँ लेनी थीं। कार्यालय के कामकाज निपटाने थे। जब डाक आई तो निजी पत्र बाद में पढ़ने के लिए अलग रख दिए गए। दोपहर के भोजन के बाद मैं अपने कमरे में गई और उन्हें साथ लेती गई। उनमें हरिजनकी 31 जुलाई की मेरी प्रति भी थी। मैं उसके पन्नों को पलटने लगी। तभी मेरी नजर एक पैराग्राफ पर अटक गई : भारत के बच्चों को गाँधीजी जैसी शिक्षा देना चाहते थे, उसके बारे में उन्होंने एक सार्वजनिक ब्यौरा प्रकाशित किया था। उन चन्द पँक्तियों ने मेरे दिमाग से बाकी सारी बातों को बाहर कर दिया। मैंने उन पँक्तियों को बार-बार पढ़ा। मैं आज भी उन शब्दों को ठीक-ठीक याद कर सकती हूँ, जो उस पैराग्राफ को पढ़ने के बाद मेरे दिमाग में आए थे - आखिरकार कोई तो है जो शिक्षा के बारे में कायदे की बात कह रहा है! मैं उत्सुकता से अगले और फिर उससे अगले हरिजनकी प्रतीक्षा करने लगी। मैं गाँधी जी के प्रस्तावों से पैदा हो रहे विवादों में भी दिलचस्पी लेने लगी। इसी दौरान मुझे पता चला कि अक्टूबर में कुछ चुने हुए शिक्षाशास्त्रियों को प्रारम्भिक चर्चा के लिए बुलाया जा रहा है। तब तक मैं गाँधी जी से नहीं मिली थी। मैं युवा और संकोची थी और दक्षिण भारत के बाहर भारत के बारे में कुछ भी नहीं जानती थी। इसलिए अपने उत्साह के बावजूद मुझे कभी लगा ही नहीं कि मैं भी उस बैठक में जा सकती हूँ। अब मुझे समझ में आता है कि अगर मैं वहाँ जाती तो मेरा स्वागत ही होता पर अब मुझे कोई अफसोस नहीं है। मेरे लिए चीजें कुछ दूसरे तरह से घटित हुईं।
नई तालीम पर केन्द्रित सेवाग्राम प्रयोग की यह कथा एक ऐसी महिला द्वारा लिखी गई है जो रक्त और जन्म के आधार पर अँग्रेज है और उस राष्ट्र की नागरिक है जिसके औपनिवेशिक शासन को सेवाग्राम से ही चुनौती दी जा रही थी। वह एक शिक्षक तो है परन्तु उसी ‘‘पश्चिमी‘‘ शिक्षा तंत्र द्वारा शिक्षित है जिसे गाँधीजी अँग्रेजी शासन को बनाए रखने के लिए आंशिक तौर पर जिम्मेदार मानते थे। एक ऐसी महिला जिसने भारत में अपने पहले दस साल मद्रास के एक निजी स्कूल में गुजारे जो सरकारी ‘‘सहायता’’ प्राप्त स्कूल होने के नाते कई अहम अर्थों में सरकारी तंत्र से बँधा हुआ था। फिर ऐसा कैसे हुआ कि यह अँग्रेज अध्यापिका सेवाग्राम प्रयोग से बिल्कुल शुरुआती दौर में ही आ जुड़ी? उन्होंने शिक्षा के गुर अपने पिताजी से सीखे जो एक असाधारण शिक्षक थे। कार्यकेन्द्रित शिक्षा, मातृभाषा में शिक्षा जैसे मसलों पर उन्होंने गुलाम भारत में रहते हुए अनेक कार्य किए। यहाँ मार्जोरी साइक्स के शिक्षा के अनुभवों को किश्तवार प्रकाशित किया जा रहा है इस कड़ी में पढ़िए पहला लेख।
गाँधी जी के विचारों के प्रति मेरा उत्साह शून्य से पैदा नहीं हुआ था। इसका सम्बन्ध मेरे बचपन के अनुभवों से था। जब मैं छोटी थी तो हम बच्चों से उम्मीद की जाती थी कि हम रोजमर्रा के घरेलू कामों में हाथ बँटाएँ। हमें अपने सादगी भरे छोटे से घर की साफ-सफाई और भोजन बनाने में मदद करनी होती थी। मेरे पिता उत्तरी इंग्लैण्‍ड के एक निर्धन कोयला खनन इलाके के ग्रामीण स्कूल में प्रधानाध्यापक थे। उनका वेतन भी साधारण ही था। यह एक साधारण स्कूल था, लेकिन मेरे पिता कोई साधारण अध्यापक नहीं थे। वह जानते थे कि बच्चे कामों और चीजों को खुद करते-बनाते हुए ही सीखते हैं। उन बच्चों के कुछ करने एवं बनाने के लिए चीजें जुटाते-तैयार करते हुए वह शाम को घण्टों लगे रहते थे। इस काम में मैं, उनकी सबसे बड़ी बेटी, उनकी सहायता करती थी। उन्होंने स्कूल के बच्चों को गत्ते के ऐसे मॉडल बनाना सिखाया जो सचमुच काम करते थे। करके दिखाया कि कैसे रेलवे सिगनल बनाए जा सकते हैं जो ऊपर-नीचे हो सकें, कैसे पनचक्की तैयार करें। पनचक्की के लिए वे पानी की जगह महीन बालू का इस्तेमाल करते थे क्योंकि गत्ते की चक्की पर पानी नहीं डाला जा सकता था। इसी तरह उन्होंने गणित और विज्ञान के सबक पढ़ाए। साथ ही शारीरिक कौशल और सफाई से काम करने की सीख दी। भूगोल, इतिहास, काव्य और संगीत को भी बच्चों के अनुभवों के साथ जोड़कर सिखाया। एक बार कनाडा में रह चुके एक सहायक अध्यापक पधारे जो सोख्ता कागज पर चिंगारी से आग लगाना जानते थे। पिता जी ने फौरन ही इस प्रयोग के लिए भी इन्तजाम कर दिया और उसके बाद सारे बच्चों को भी खुद ये तरकीब आजमाने का मौका दिया।  
 जब 1928 में मैंने मद्रास में पढ़ाना शुरू किया तो मैंने अपने पिता से कहा कि वे कोई ऐसी गाइड-बुक भेज दें जिसमें रोजमर्रा की वस्तुओं का उपयोग करते हुए प्रायोगिक गतिविधियों के जरिए सामान्य विज्ञान पढ़ाने के बारे में बताया गया हो। उन्होंने जल्दी ही मुझे कुछ किताबें भेज दीं। इन पुस्तकों से मुझे आने वाले समय में मद्रास में बहुत सारे सबक तैयार करने में बड़ी सहूलियत मिली।  यह भारत के शैक्षणिक दायरे में स्थानीय संसाधनों के उपयोग का फैशन आने से 40-50 साल पहले की बात है। बाद में सेवाग्राम के मेरे विद्यार्थी जब-तब मुझसे पूछ ही बैठते थे कि मैंने नई तालीम का प्रशिक्षण कहाँ से लिया था। मेरा जवाब होता, अपने घर में, अपने माता-पिता से।
जब मैं स्कूल में पढ़ रही थी उन दिनों तक मुझे गाँधी जी के बारे में कुछ भी पता नहीं था। 1920-21 में भी हमें भारत में चल रहे असहयोग आन्दोलन की भी कोई जानकारी नहीं थी। हाँ, हमें आयरलैण्‍ड के स्वतन्त्रता आन्दोलन के बारे में खूब जानकारी थी और उस संघर्ष में हमारी सहानुभूति आयरिश जनता के साथ थी। औपनिवेशिक जनता द्वारा अपनी पहचान के लिए चलाए जा रहे संघर्षों में मेरी रुचि केम्ब्रिज विश्वविद्यालय में और गहरी हुई। वहाँ हमें भारतीय मित्रों से यहाँ के राष्ट्रीय आन्दोलन और उसके नेताओं के बारे में पता चला। शिक्षा के क्षेत्र में सहायता के लिए भी उन दिनों अकसर अपीलें सुनाई पड़ती रहती थीं। उनके नौजवान नेता ऐसे स्कूल खोलना चाहते थे जो उनकी संस्कृति के मूल्यों की रक्षा कर सकें और पश्चिम के बढ़ते दबाव का मुकाबला करने में उनको मदद दें। वे चाहते थे कि ब्रिटिश अध्यापक समानता की दृष्टि से उनकी सहायता करें। मैं इन प्रस्तावों से काफी आकर्षित थी अध्यापक के तौर अपना प्रशिक्षण पूरा करने के तुरन्‍त बाद मद्रास के एक स्कूल के सम्‍पर्क में आ गई जहाँ सहायता की जरूरत थी।
1928 के पतझड़ में मैं मद्रास पहुँची। बेन्टिंक गर्ल्स हाई स्कूल की शुरुआत लार्ड विलियम बेंटिंक के जमाने में बहुत छोटे पैमाने से हुई थी। उसका नाम भी लार्ड बेन्टिंक नाम पर ही रखा गया था। 1937 में जब गाँधी जी ने हरिजनमें अपना ऐतिहासिक पैराग्राफ लिखा उस समय तक यह स्कूल अपने 100 साल पूरे कर चुका था। 1987 में जब नई तालीम की स्वर्ण जयन्ती मनाई जा रही थी उस समय यह स्कूल अपनी स्थापना के 150 वर्ष पूरे कर रहा था। जैसा कि मैं बता चुकी हूँ, अपने पाठ्यक्रम और परीक्षाओं के मामले में यह स्कूल व्यवस्था का ही अंग था लेकिन कई अहम मामलों में यहाँ  काफी आजादी भी थी। मेरे दो वरिष्ठ सहकर्मी 1928 में साबरमती और शान्ति निकेतन में रह चुके थे। वे गाँधी जी व गुरुदेव रवीन्द्रनाथ टैगोर से बहुत प्रभावित थे। इस तरह के प्रयासों का एक परिणाम ये निकला कि बेन्टिंक स्कूल के बच्चे-बच्चियों ने जन गण मन गाना सीख लिया था। वे इसके राष्ट्रीय गान बनने से बहुत पहले ही इसे प्रसन्नता से गाने लगे थे। वे इसके कई पदों को अच्छी तरह समझने लगे थे। भारत की महान धार्मिक परम्पराओं के बीच साहचर्य वाला पद उन्हें खासा पसन्द था।
टैगोर ने कहा था कि बच्चों की शिक्षा में उनकी मातृभाषा का केन्द्रीय स्थान होना चाहिए। उनके इस कथन ने हमारे विश्वास को और मजबूती दी। हमारा स्कूल द्विभाषिक स्कूल था। वहाँ तमिल और तेलुगु, दोनों भाषाओं में शिक्षा दी जाती थी। हम इस बात का खयाल रखते थे कि दोनों भाषाओं को उचित सम्मान मिले। कभी-कभी हम मद्रास में चलने वाली राष्ट्रीय गतिविधियों में नेतृत्वकारी भूमिका निभाने वाली विशिष्ट महिलाओं को बुलाते थे ताकि बच्चों को उन महिलाओं के काम के बारे में पता चले। उन महिलाओं में से कई अँग्रेजी माध्यम के स्कूलों से पढ़ी थीं। उनको अपनी मातृभाषा के बजाय अँग्रेजी में बोलना आसान लगता था। हमें उनको भी तमिल में बोलने के लिए समझाना पड़ता था। हम उनसे कहते, हम चाहते हैं कि आपकी बात सभी बच्चे समझें। सारे बच्चे आपकी अँग्रेजी नहीं समझते। कृपया तमिल में बोलिए और वे हमारी बात मानती थीं।
हमें बाद में पता चला कि गाँधी जी भी मातृभाषा के इस्तेमाल पर जोर दे रहे थे। उन दिनों तो हम मुख्यतः उनकी देदीप्यमान ईमानदारी एवं सादगी के बारे में ही जानते थे। हमारा स्कूल गरीब था, अधिकतर बच्चे साधारण परिवारों के थे। मद्रास की जलवायु हमेशा गर्म रहती थी इसलिए फर्नीचर कम थे और बच्चे चप्पल शायद ही कभी पहनते थे। अध्यापक और बच्चे, सभी नंगे पैर रहते थे और फर्श पर ही घास से बनी चटाइयों पर सोते थे।
 टिन की छोटी सी सन्दूकची में ही एक लड़की के सभी कपड़े और अन्य वस्तुएँ आ जाती थीं। जब मैंने पहली बार सेवाग्राम की सादगी को देखा तो मुझे न आश्चर्य हुआ और न कुछ अनजाना सा लगा। यहाँ एक खास किस्म की अपनी शालीनता थी, अपना सौन्दर्य था। सेवाग्राम दक्षिण के ग्रामीण घरों और बच्चों की सादगी को अभिव्यक्त करता था। अभी मुझे मद्रास में आए ज्यादा हफ्ते नहीं हुए थे कि तभी सौभाग्यवश मेरी मुलाकात राजा जी से हुई। उन्होंने गाँधी जी  के रचनात्मक कार्यक्रम और उनकी प्रेरणा से चल रही राष्ट्र-निर्माण गतिविधियों के बारे में बताया। वे स्वयं इन गतिविधियों से गहराई से जुड़े थे, खासतौर पर तिरुचेनगोड़ के अपने आश्रम से। इन बातों से प्रेरणा लेकर हम अध्यापक भी सोचने लगे कि स्कूल की लड़कियों को भावी भारत के योग्य नागरिक बनने में सहायता करके अपने छोटे स्तर से ही राष्ट्र-निर्माण के लिए और क्या-क्या कर सकते हैं। बेन्टिंक में कई बातें हमारे पक्ष में थीं। सबसे पहले तो ये कि हमारा स्कूल आजकल के हिसाब से छोटा था। किण्डरगार्टन से लेकर स्कूल की फाइनल कक्षाओं तक कुल मिलाकर हमारे पास 350 बच्चे थे। हम ये सोचते थे और अब भी सोचते हैं कि यह सही संख्या थी। अध्यापक और बच्चे एक-दूसरे को जानते थे और एक-दूसरे का ध्यान रखते थे। हम इतने बड़े नहीं थे कि एक बड़े परिवार की तरह महसूस और व्यवहार करने की क्षमता ही खो दें। दूसरे, हमारे स्कूल क्रिश्चियन प्रबन्धन की देख-रेख में चलते थे परन्तु किसी धर्म के साथ कोई भेदभाव नही था। सभी लड़कियों के लिए समान कायदे-कानून थे चाहे लड़की किसी भी धार्मिक पृष्ठभूमि या ऊँची या नीची जाति की हो। सबके साथ समान व्यवहार किया जाता था। स्कूल में ही रहने वाले बच्चे स्कूल के ही भोजनालय में भोजन करते थे और उसको चलाने में वे मदद करते थे। स्थानीय बच्चे दोपहर का भोजन लेकर आते थे और छायादार पेड़ों के नीचे घेरे में बैठ कर भोजन करते थे। सब बच्चों की तरह वे भी कभी-कभी सफाई करना भूल जाते थे।
एक दोपहर को स्टाफ रूम से हमने देखा कि एक सीनियर ब्राह्मण लड़की कुछ लापरवाह जूनियर लड़कियों द्वारा छोड़ दी गई जूठी पत्तलों को विनम्र भाव से चुपचाप साफ कर रही है। पत्तल छोड़कर गई लड़कियों में से कुछ निम्न जाति की भी थीं। हमने सोचा कि कम से कम इस लड़की ने तो गाँधी जी के रचनात्मक कार्यक्रम की भावना को समझ लिया है। बच्चों से उम्मीद की जाती थी कि वे अपनी कक्षाओं और स्कूल परिसर को साफ-सुथरा रखेंगे। इसके लिए कोई नौकर नहीं था। कुछ कक्षाएँ साधारण फूस से बनी होती थीं जिनमें काम करना बडा़ आनन्ददायक था। उन कक्षाओं में पढ़ने वाली लड़कियों ने ही चारों तरफ फूलों की क्यारियाँ बना रखी थीं और वे उनकी देखभाल करती थीं। यह सब कुछ सहकारिता से ही सम्भव था। इस सहकारिता की भावना को हमने जानबूझकर खेल-कूद और अकादमिक कार्यक्रमों में भर दिया था।
शारीरिक शिक्षा के कार्यक्रम में हमारा उद्देश्य कुछ स्टार खिलाड़ियों को तैयार करना नहीं था। हम हर बच्ची को प्रोत्साहित करते थे ताकि वह अपना वह सर्वोत्तम प्रदर्शन कर सके। यानी हमारा प्रयास रहता था कि जिन बच्चों में जन्मजात प्रतिभा है वे अन्य बच्चों की सहायता करें। कक्षाओं में भी ऐसा ही था। हम सर्वश्रेष्ठ प्रदर्शन करने वाले बच्चे को कोई अकादमिक पुरस्कार नहीं देते थे, बल्कि हम उन्हें अन्य बच्चों की सहायता, अपनी कड़ी मेहनत और दोस्ताना सहयोग से आगे बढ़ने के लिए प्रेरित करते थे, उन पर नजर रखते थे और धीमी प्रगति करने वाले बच्चों में भी सुधार आने पर उनकी प्रशंसा करते थे। अरे हां! लोगों ने हमसे कहा था कि पुरस्कारों की कृत्रिम प्रेरणा के बगैर बच्चे काम नहीं कर सकते। लेकिन ऐसा नहीं है। यदि कभी ऐसा लगता भी है तो केवल इसलिए कि जिस काम की हम बच्चों से उम्मीद रखते हैं उसमें उनकी कोई अन्दरूनी रुचि नहीं होती है या फिर उनके लिए उसका कोई अर्थ ही नहीं होता है। कुछ मां-बाप ने हमारे रवैए का विरोध भी किया। उनका कहना था कि वे अपनी लड़कियों को पढ़ने के लिए भेजते हैं फर्श साफ करने या क्यारियों में पानी देने के लिए नहीं।
दूसरी ओर यह भी सच है कि एक सहायता प्राप्त स्कूल की सीमाओं के भीतर हम जो कुछ भी कर रहे थे उसकी वजह से ही कुछ माँ-बाप अपनी लड़कियों को जानबूझकर हमारे पास भेजते थे। ऐसे अभिभावकों में कई शहर के राष्ट्रीय नेता भी शामिल थे। लेकिन हम जो कर सकते थे उसकी भी एक सीमा थी और 1935 के आसपास से मैं इस बारे में ज्यादा असहज रहने लगी थी। एक बात ये थी कि गाँधी जी इस बात से बहुत परेशान थे कि शिक्षा के लिए पैसा एक हद तक शराब की लाइसेंसशुदा दुकानों से आ रहा था। एक अन्य तथ्य जो मुझे परेशान करता था वह भारत की वास्तविक जरूरतों के सन्दर्भ व्यवस्था के अप्रासंगिक होने के प्रति मेरी बढ़ती जागरुकता थी। मुझे लगने लगा कि कुछ ऐसा है जो गहरे तौर पर गलत है।
एक लड़की नर्स बनना चाहती थी। एक कॅरियर के हिसाब से उसका व्यक्तित्व एवं कौशल, सब कुछ नर्स बनने के लिए अनुकूल था। परन्तु उसे प्रशिक्षण कोर्स में प्रवेश देने से मात्र इसलिए मना कर दिया गया क्योंकि वह अँग्रेजी व्याकरण जैसे औपचारिक एवं अप्रासंगिक विषय में पास नहीं हो पाई थी। मुझे एक परेशानी कम्युनल इलेक्टोरेट के लिए 1935 में किए गए प्रावधान से थी। साम्प्रदायिक मतदान के राजनीतिक नतीजों के मद्देनजर धर्मांतरण का मुद्दा राजनीतिक रूप से विस्फोटक हो गया था। जैसा कि मैंने बताया, हमारा स्कूल एक क्रिश्चियन फाउण्डेशन था। अब तक मैं सभी समुदायों की लड़कियों को बेहिचक बाइबिल पढ़ा लेती थी। बाइबिल में दिए गए सार्वजनिक न्याय एवं सदाचार के महान सन्देशों को हम गाँधी जी के विचारों और सामाजिक न्याय के परिप्रेक्ष्य में पढ़ते-समझते थे। लेकिन 1935 के बाद प्रत्येक साम्प्रदायिक संगठन; चाहे वह कितना भी खुला या ईमानदार हो प्रत्यक्ष-अप्रत्यक्ष रूप से धर्म परिवर्तन के आरोपों में फँसने लगा। अब तक होने वाली खुली एवं सहज आपसी चर्चाओं पर सन्देह की छाया मण्डराने लगी। ऐसे सरकारी और अन्य दबावों को लेकर मैं काफी खिन्न थी। मैं हर पल ये चाहने लगी कि मुझे आजाद माहौल में काम करने की आजादी मिले। गाँधी जी के सपनों और आशाओं के बारे में पढ़ने के बाद अगस्त के उस दिन से तो मेरी यह चाह और मजबूत हो गई।
1938 में आगे का रास्ता खुलने लगा। अपने कुछ दोस्तों के माध्यम से मुझे रवीन्द्रनाथ टैगोर का गर्मजोशी भरा पत्र मिला जिसमें उन्होंने मुझसे आग्रह किया था कि मैं शान्ति निकेतन में काम करूँ। मैंने यह आमंत्रण तुरन्त स्वीकार कर लिया और 1938 के दिसम्बर में अपने भावी कामकाज को समझने-बूझने के इरादे से मैं शान्ति निकेतन के लिए निकल पड़ी। मैंने सीधा तटीय रास्ता नहीं चुना बल्कि पहले मैं वर्धा गई। मैं अपनी आँखों से देखना चाहती थी कि वहाँ तथा गाँव स्थित नए ग्रामीण स्कूल और शिक्षक प्रशिक्षण केन्द्र में क्या कुछ चल रहा है। वहाँ पहली बार मैं गाँधी जी से मिली और उनके स्कूल एवं उसके आदर्शों के बारे में सीधे उनसे समझने का मौका मुझे मिला। इस बार मैं उनके विचारों से और ज्यादा प्रभावित हुई। उस दिसम्बर में मैंने जो कुछ देखा-जाना, वह आगे की कहानी का एक हिस्सा है।



साभार : मार्जोरी साइक्स, (1988), द स्‍टोरी ऑफ नई तालीम, अनुवाद: श्री प्रकाश, क्षेत्रीय प्रारम्भिक शिक्षा संसाधन केन्द्र, दिल्ली विश्वविद्यालय, दिल्ली।
(यहाँ इसे शैक्षिक पत्रिका शिक्षा की बुनियादके सौजन्‍य से प्रकाशित किया जा रहा है।)


साभार
 

prathamik shikshak

pathak diary