ये वो दुनिया नहीं - जो
चाहते हैं बच्चे
मानव समाज, धर्म और
संस्कृति में बच्चों को भगवान का रूप माना जाता है। वे अबोध, कोमल व मासूम होते हैं जिन्हें देश, धर्म और राजनीति से कोई लेना-देना
नहीं। इन्हीं नन्हे मासूमों को पेशावर के सैनिक स्कूल में जिस बर्बरता और
हैवानियत से मारा गया, उससे पूरी दुनिया में मानवता शर्मशार है। इंसानियत को तार-तार करने वाली
यह वारदात साबित करती है कि आज चाहे बच्चे हों या महिलाएं - कोई भी इन दहशतगर्दो
के नापाक इरादों से कहीं भी सुरक्षित नहीं हैं। वक्त आ गया है कि पूरी दुनिया इन
आतंक के सौदागरों का एकजुट होकर सामना करे और हर हाल में इंसानियत को हारने से
बचाये, बता रही
हैं डॉ. मोनिका शर्मा
अनचाहे अनजाने डर को जीते हुए बंदूकों के साये में खेलना अपने पराये का
पाठ पढ़ना और प्रतिशोध का सच गढ़ना खून से सनी किताबें और स्कूल से घर न लौटने
का भय... ये वह दुनिया नहीं जो हम बच्चे चाहते हैं। बच्चे
‘मेरा बच्चा सुबह यूनिफॉर्म में था, अब ताबूत में है। मेरा बेटा मेरा ख्वाब
था, मेरा
ख्वाब मारा गया।’ ‘मेरे बेटे
को नकली बंदूक से भी डर लगता था, असली बंदूक देखकर उस पर क्या गुजरी होगी? मार डाला मेरे बच्चे को!’ हर इंसान के मन कहीं भीतर तक उतर जाने
वाले ये शब्द हैं हाल ही में पाकिस्तान में आर्मी स्कूल पर हुए आतंकी हमले में
जान गंवाने वाले एक बच्चे के पिता और एक बच्चे की मां के। इस बर्बर आतंकी हरकत
ने कई घरों में सदा के लिए अंधेरा कर दिया। मासूम बच्चों की जान तो गई ही, यह हैवानियत अनगिनत सवाल भी छोड़ गई।
आतंकियों द्वारा किया गया यह वीभत्स हमला, जिसके चलते नियंतण्र स्तर पर हर मानवीय
मन यही सोच रहा है कि क्या इंसानियत हार रही है? बचपन तो सरहदें मिटा देता है। केवल
मुस्कुराना जानता है। उस मासूमीयत का यह हाल कि जिसने देखा रो पड़ा। अब हर आहत
मन का यही प्रश्न कि यह विध्वंसक सच आखिर कहां ले जाएगा? और ये कैसी आपदाएं हैं जो इंसान स्वयं
पैदा करता है?
इंसानियत नहीं तो कुछ नहीं जिस देश की मलाला को कुछ ही दिन पहले
शांति का नोबेल मिला है, वहां
बच्चे स्कूल गये और फिर कभी घर नहीं लौटे। मासूमों का जीवन छीनने का ये कायराना ताडंव
हर किसी को भीतर तक कचोट गया। यह घटना पाकिस्तान के लिए तो बड़ा सवाल है ही, बाकी दुनिया के देशों के लिए भी सोचने
का विषय है। अब यह विचार करना जरूरी है कि क्या हम यही दुनिया चाहते हैं? ऐसी दुनिया जिसमें मनुष्यता का मान ही
न हो। इसमें तो इंसानियत ही शर्मसार है । बच्चों की शिक्षा के लिए आवाज बुलंद कर
दुनियाभर में पहचान पाने वाली मलाला ने इस घटना को लेकर कहा है- ‘मेरा मन दुखी है पर हम हार नहीं
मानेंगे। मानवता से बढ़कर कोई मजहब नहीं होता।’ ऐसे में यह विचारणीय है कि जो इंसानियत
के ही हिमायती नहीं वे दुनिया को केवल हिंसा की सौगात ही दे सकते हैं। ऐसे जघन्य
और अक्षम्य अपराध हर बार मनुष्यता को शर्मसार करते हैं।
जन्नत नहीं, इस जहां
की सोचो बच्चे किसी भी देश का मुस्तकबिल होते
हैं। उनका जीवन छीनकर कौन सी जन्नत पाई जा सकती है? इस जहां से अलग जो एक जहां है उसकी
इतनी चिंता कि हम जीते जी मानवीयता का मान करना ही भूल जायें। ये कौन-सा सबक है
जो बस मारना सिखाता है? उजड़े
आशियानों में जन्म लेने और बंदूक की नोक तले पलने वाले मासूम मन वो कौन सी दुआ
देते हैं जो जन्नत नसीब करवाती है? ग्लोबल टेरर इंडेक्स के अनुसार आज
दुनिया के एक तिहाई देश आतंकी हिंसा के शिकार हैं। आतंकी हिंसा का दंश किसी देश
के पूरे सामाजिक, आर्थिक और
पारिवारिक ढांचे की नींव हिला देता है। जिसके चलते सामने आने वाले खामियाजे वहां
की भावी पीढ़ियों का भी जीवन तबाह कर देता है। वहां के बच्चे इस दंश को दुनिया
में आने से पहले से ही भोगने को मजबूर हैं। आतंक के साये तले न तो जन्म देने
वाली मांएं सुरक्षित हैं और न ही सिर छुपाने वाले आशियाने। इन परिस्थितियों में
जो बच्चे संसार में आते हैं वे किस मनोस्थिति के साथ बड़े होंगे, इसे समझना किसी भी इंसान के लिए
मुश्किल नहीं। अफसोस तो यह है कि इन परिस्थितियों को जान-बूझकर पैदा करने वाले
भी इंसान ही हैं।
हर परिवार चेते कभी जाति, कभी धर्म, कभी क्षेत्रीयता और कभी प्रतिशोध लेने
की कुत्सित मानसिकता। भारत और पाकिस्तान दोनों ही ऐसे मुल्क हैं जिन्होंने इस
दंश को झेला है और आज भी झेल रहे हैं। इस लड़ाई को लड़ने के लिए साझा प्रयास की
आवश्यकता है। एक दूजे की खिलाफत करते हुए इसे नहीं जीता जा सकता है। इन हालातों
में इंसानियत को बचाने में दुनिया का हर परिवार अपनी भूमिका निभाए। अब हर ओर
आतंक का साया मंडरा रहा है। पढ़े-लिखे घरों के बच्चे इन आतंकी संगठनों का हिस्सा
बन रहे हैं। अपने घर आंगन में इस विषय पर बात अब जरूरी हो गई है कि परिवार की
पीढ़ी किस दिशा में जा रही है। अब तो ये संगठन युवाओं को दिग्भ्रमित करने के लिए
तकनीक का भी सहारा ले रहे हैं। अपने संगठनों से जोड़ने के लिए ये युवाओं को
ऑनलाइन बरगलाने का काम कर रहे हैं। उनका ब्रेन वॉश कर अपनी मुहिम से जोड़कर उनके
जीवन को दिशाहीन बना रहे हैं। ऐसे में अब इनकी पहुंच ग्लोबल हो चली है। जिसके
चलते निश्चित रूप से दुनिया के हर परिवार को सचेत और सजग रहने जरूरत है। इतना ही
नहीं, अब आतंक
की पुरानी अवधारणा से इतर यह समझने की कोशिश जरूरी है कि गरीबी से जूझ रहे
परिवारों के बच्चे इस खूनी खेल के जाल में फंसते हैं। अमेरिका के इंस्टीट्यूट
फॉर इकोनॉमिक्स एंड पीस द्वारा तैयार एक रिपोर्ट के अनुसार 80 फीसदी आतंकी हिंसा के लिए केवल चार
आतंकी संगठन जिम्मेदार हैं। और हैरानी की बात ये है कि आतंकी हिंसा का गरीबी और
अशिक्षा से कोई सीधा संबंध देखने को नहीं मिल रहा है। यानी कि जीवन से जुड़े
अभावों के बजाय मानसिक भटकाव युवाओं को इस हिंसक प्रवृत्ति की ओर ले जा रहा है।
मौजूदा दौर में पूरी दुनिया को इस सवाल का जवाब तलाशना ही होगा कि जघन्यता का यह
दर्द कब तक इंसानों को लीलता रहेगा? अब हर देश ये समझे कि आतंकवाद
राष्ट्रीय हित साधने का जरिया हरगिज नहीं बन सकता। जिनके मन से संवेदनशील सच और
मानवीयता ही गुम है वे अपना पराया क्या देखेंगें?
आतंक का दंशझेलता बचपन पाकिस्तान में हुए इस बर्बर हमले में
भी बात केवल कुछ बच्चों की जान जाने तक ही खत्म नहीं होती। ऐसे भयाक्रांत मंजर
देखने वाले कितने ही मासूम मन जीवन भर भय के अंधे रे से बाहर न आ सकेंगे। इंसानी
जिन्दगी और उसके वजूद को वे जिस तरह मिटते हुए देख रहे हैं, आगे चलकर स्वयं कैसे इंसान बनेंगे- यह
भी एक बड़ा सवाल है। आये दिन ऐसी तस्वीरें सोशल मीडिया पर छाई रहती हैं जिनमें
आतंक और हिंसा के चलते बच्चों के दयनीय हालात नजर आते हैं। आतंक का भय फैलाने
वालों का मनोविज्ञान ही कुछ ऐसा होता है कि वे बच्चे हों या महिलाएं- किसी पर
दया नहीं करते। पिछले महीने आई ‘ग्लोबल टेरर इंडेक्स’ की रिपोर्ट के अनुसार भारत आतंकी हिंसा से ग्रस्त 162 देशों की सूची में छठे स्थान पर है।
गौरतलब है कि दुनियाभर में कुल आतंकी हिंसा का 82 फीसदी इराक, अफगानिस्तान, पाकिस्तान, नाइजीरिया और सीरिया तक सीमित है।
संयुक्त राष्ट्र और उसके मानवाधिकार आयोग की ओर से इराक तथा सीरिया में आतंकवादी
हिंसा पर जारी ताजा रिपोर्ट बताती है कि आतंकी हिंसा झेल रहे देशों में बच्चे
एवं महिलाएं यौन उत्पीड़न और अमानवीय यातनाओं का भी शिकार हैं। यह दुखद ही है कि
हर तरह की पीड़ा देने वाले आतंकी हादसों के निशान बालमन पर सदा के लिए चस्पां हो
जाते हैं। इस हिंसक खेल में न बचपन की मासूमियत बच रही है, न स्त्रियों की अस्मिता। रक्तरंजित खेल
की इस बिसात पर हार रही है तो बस इंसानियत।
अमेरिका के इंस्टीट्यूट फॉर इकोनॉमिक्स एंड पीस द्वारा तैयार एक रिपोर्ट
के अनु सार 80 फीसदी
आतंकी हिंसा के लिए केवल चार आतंकी संगठन जिम्मेदार हैं। और हैरानी की बात ये है
कि आतंकी हिंसा का गरीबी और अशिक्षा से कोई सीधा संबंध देखने को नहीं मिल रहा
है। यानी कि जीवन से जुड़े अभावों के बजाय मानसिक भटकाव युवाओं को इस हिंसक
प्रवृत्ति की ओर ले जा रहा है
पिछले महीने आई ‘ग्लोबल टेरर इंडेक्स’ की रिपोर्ट के अनुसार भारत आतंकी हिंसा
से ग्रस्त 162 दे शों की
सूची में छठे स्थान पर है। गौरतलब है कि दुनियाभर में कुल आतंकी हिंसा का 82 फीसदी इराक, अफगानिस्तान, पाकिस्तान, नाइजीरिया और सीरिया तक सीमित है।
संयुक्त राष्ट्र और उसके मानवाधिकार आयोग की ओर से इराक और सीरिया में आतंकवादी
हिंसा पर जारी ताजा रिपोर्ट बताती है कि आतंकी हिंसा झेल रहे देशों में बच्चे
एवं महिलाएं यौ न उत्पीड़न और अमानवीय यातनाओं का भी शिकार हैं
साभार राष्ट्रीयसहारा
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